________________ जैन धर्म एवं दर्शन-339 जैन ज्ञानमीमांसा-47 होती, किन्तु जैसे कमल के सौ पत्तों को ऊपर-नीचे रखकर सुई से छेदने पर ऐसी प्रतीति होती है कि सारे पत्ते एक ही समय में छेदे गये, यद्यपि वहाँ कालभेद है, जो अत्यन्त सूक्ष्म होने से हमारी दृष्टि में नहीं आता, वैसे ही अभ्यस्त विषय में यद्यपि केवल अवाय-ज्ञान की ही प्रतीति होती है, फिर भी उससे पहले अवग्रह और ईहा-ज्ञान बड़ी द्रुत गति से हो जाते हैं। इससे उनकी प्रतीति नहीं होती। ___ यह भी कोई नियम नहीं है कि इनमें से पहला ज्ञान होने पर आगे के सभी ज्ञान होते ही हैं। कभी केवल अवग्रह ही होकर रह जाता है, कभी अवग्रह के पश्चात् संशय होकर ही रह जाता है, कभी अवग्रह, संशय और ईहा ही होते हैं, कभी-कभी अवग्रह, संशय, ईहा और अवाय-ज्ञान ही होते हैं, और कभी धारणा तक होते हैं। ये सभी ज्ञान एक चैतन्य के ही विशेष हैं, किन्तु ये सब क्रम से होते हैं तथा इनका विषय भी एक-दूसरे से अपूर्व है, अतः ये सब आपस में भिन्न-भिन्न माने जाते हैं। ___ इस प्रकार, हम देखते हैं कि प्रत्यक्ष की अनुभूति को उस स्थिति में रखना, जिसे हम चाहे जब चेतना के स्तर पर लाकर कोई निर्णय ले सकें, तो वह धारणा हमारे वर्तमानकालीन प्रत्यक्ष का ही एक रूप होती है। इसी भूतकालीन स्मृति से वर्तमानकालीन प्रत्यक्ष की तुलना करके सादृश्य, वैदृश्य का निर्णय लेना प्रत्यभिज्ञान है। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के तत्त्व मुख्य रूप से हमारे निर्णय में सहायक होते हैं, अतः प्रत्यक्ष-प्रमाण के ही अंग माने गए हैं। दूसरे, उनसे अनुमान हेतु व्याप्ति-सम्बन्ध का बोध होता है, अतः वे अनुमान के लिए भी अपरिहार्य हैं। 'इन्द्रिय' शब्द का अर्थ- 'इन्द्रिय' शब्द के अर्थ की विशद विवेचना न करते हुए यहाँ हम केवल यही कहेंगे कि जिन-जिन साधनों की सहायता से जीवात्मा विषयों की ओर अभिमुख होता है, अथवा विषयों के उपभोग में समर्थ होता है, वे इन्द्रियाँ हैं / इस अर्थ को लेकर कहीं कोई विवाद नहीं पाया जाता है। इन्द्रियों की संख्या- (अ) जैन-दृष्टिकोण - जैन-दर्शन में इन्द्रियाँ पाँच मानी गई हैं- 1. श्रोत्र, 2. चक्षु, 3. घ्राण, 4. रसना और 5. स्पर्शन (त्वचा)। जैन-दर्शन में मन