________________ जैन धर्म एवं दर्शन-338 जैन ज्ञानमीमांसा-46 होती है, अतः ऐन्द्रिक या मानसिक-विषय के संबंध में जो निर्णयाभिमुख ज्ञान होता है, उसे ही ईहा कहा जाता है। ईहा संशय से इस अर्थ से भिन्न होती है कि संशय में उभयकोटियों के मध्य व्यक्ति कोई निर्णय नहीं कर पाता। ईहा भी निर्णय तो नहीं करती, किन्तु निर्णयाभिमुख अवश्य होती है। अतः, ईहा निश्चयात्मक-बोध तो नहीं है, किन्तु व्यक्ति को निश्चय की ओर अभिमुख अवश्य करती है। ___ अपाय - ईहा के द्वारा जो निर्णयाभिमुखता प्राप्त होती है, उसे निर्णीत कर देना ही अवाय या अपाय है। वस्तुतः, वस्तु के विशेष धर्मों का ज्ञान होना अपाय है। अपाय निर्णयात्मक-ज्ञान है, वह ज्ञेय वस्तु को यथार्थ रूप में जानता है। जैसे आकाश में उड़ती हुई सफेद वस्तु को देखने पर, यह पताका है, या बगुलों की पंक्ति है- ऐसी जिज्ञासा होती है, फिर उस उड़ती हुई वस्तु को आगे गतिशील देखकर, इसे बगुलों की पंक्ति होना चाहिए- इस रूप में ईहा होती है। जब यह ईहा यह निर्णय कर लेती है कि यह बगुलों की पंक्ति है, तो यह अपाय कहलाती है। अपाय निर्णयात्मक-ज्ञान होता है, फिर उसके, संस्कार चेतना में स्थिर नहीं रहते हैं, वह क्षणजीवी होता है, उसके उन संस्कारों को भविष्य में 'स्थिर रखने के लिए चेतना का जो प्रयास होता है, उसे जैन-दार्शनिकों ने 'धारणा' नाम दिया है। धारणा - मन और इन्द्रियों के अपने विषय से संस्पर्श होने पर अवग्रह होता है। अवग्रह से ईहा निर्णयाभिमुख होती है। ईहा से हम निर्णय तक पहुंचते हैं। यह निर्णय अपाय होता है। जब यह धारणा हमारी चेतना का एक अवियोग्य अंग बन जाती है और भविष्य में जब भी हम चाहे उन संस्कारों को जगा सकते हैं, तो वह धारणा बन जाती है। अपाय के द्वारा निर्णीत विषय को भविष्य के हेतु चेतना में धारित करने की प्रक्रिया ही धारणा है। इस प्रकार अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा क्रम से होते हैं। पं. कैलाशचन्द्रजी लिखते हैं कि ये अवग्रह आदि चारों ज्ञान इसी क्रम से होते हैं, इनकी उत्पत्ति में कोई व्यतिक्रम नहीं होता, क्योंकि अदृष्ट का अवग्रह नहीं होता, अनवगृहीत सन्देह नहीं होता, सन्देह के हुए बिना ईहा नहीं होती, ईहा के बिना अवाय नहीं होता और अवाय के बिना धारणा नहीं