________________ जैन धर्म एवं दर्शन-337 जैन ज्ञानमीमांसा -45 हैं, किन्तु चक्षु और मन अपने विषय से दूर रहकर ही उसे जानते हैं, तभी तो जो वस्तु आँख के अत्यन्त नजदीक अथवा अति दूर होती है, उसे वह नहीं जानती, जैसे - आँख में लगा हुआ अंजन। इसी से जैन-दर्शन में चक्षु को अप्राप्यकारी माना है। इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व एवं अप्राप्यकारित्व की चर्चा आगे विस्तार से करेंगे। ईहा - अवग्रह में इन्द्रियों का अपने विषय से सम्पर्क होने पर जो सामान्य अवबोध होता है, वह अवग्रह कहा जाता है, किन्तु यही अवग्रह जब सामान्य ज्ञान नहीं होकर वस्तु या विषय को विशेषरूप से जानने का प्रयत्न करता है, तो वह ईहा बन जाता है, अतः अवग्रह के पश्चात् जब ज्ञेय विषय को विशेष रूप से जानने के लिए जो प्रयत्न होता है, वह ईहा कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, अनुभूति के विषय को विशेषरूप से जानने की जिज्ञासा को ही ईहा कहा जाता है। इसी जिज्ञासा में ईहा का जन्म हुआ है, जैसे - कोई व्यक्ति गहरी नींद में सोया हुआ हो और उसे कोई व्यक्ति आवाज देवे - प्रथम स्थिति में वह शब्द-ध्वनि उसके कान में जाती है, किन्तु उसे इसका कोई बोध नहीं होता है, वह व्यंजनात्मक-अवग्रह की स्थिति होती है। यहाँ इन्द्रियों का अपने विषय से सम्पर्क तो होता है, किन्तु फिर भी व्यक्ति को चेतन-उपयोग उस ओर नहीं होने के कारण बोध का अभाव होता है। जैसे सूखें सकोरे में डाली हुई पानी की बून्दें सकोरे का संस्पर्श करते हुए भी अभिव्यक्त नहीं होती हैं, इसी प्रकार इन्द्रिय का अपने विषय से संम्पर्क होने पर भी अनभिव्यक्त सम्पर्करूप बोध होता है, यही व्यंजनावग्रह है। इसके पश्चात्, जब चेतना में इस बात का बोध हो कि कोई मुझे आवाज दे रहा है, तो वह अर्थावग्रह कहा जाता है, किन्तु ईहा इससे भिन्न होती है। प्रथमतया, उस आवाज को जानने की जो जिज्ञासा उत्पन्न होती है, जैसे कि वह किसकी आवाज थी, तो यह जिज्ञासा ही ईहा का कारण बनती है, किन्तु ईहा मात्र जिज्ञासारूप बोध नहीं होती है। वह किसी सीमा तक निर्णय की ओर अभिमुख भी होती है, अर्थात् इसे किसी स्त्री की आवाज होनी चाहिए, क्योंकि यह मधुर थी - ऐसा निर्णयाभिमुख बोध ईहा कहा जाता है। ईहा संशय, विपर्यय और अज्ञान - इन तीनों से भिन्न होती है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष ज्ञान का एक अंग