________________ जैन धर्म एवं दर्शन-336 -- जैन ज्ञानमीमांसा-44 अपेक्षा से चार अवस्थाएँ मानी गई हैं- 1. अवग्रह, 2. ईहा, 3. अवाय (अपाय), 4. धारणा। आगे हम इनके स्वरूप की चर्चा करेंगे। ज्ञातव्य है कि अवग्रह आदि सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष के प्रकार न होकर उसके स्तर हैं, क्योंकि सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष भी अपनी पूर्णता पर इन स्तरों से होकर ही गुजरता है। अवग्रह - ज्ञेय वस्तु या विषय के साथ इन्द्रिय का सम्पर्क होने के बाद जो अर्थ का सामान्य अवबोध होता है, उसे अवग्रह कहते हैं। आशय यह है कि चक्षु आदि इन्द्रियों और घटादि पदार्थों का सम्पर्क होते ही जो प्रथम दर्शन होता है यह दर्शन सामान्य को ग्रहण करता है। पीछे वही दर्शन वस्तु के स्वरूप आदि का निर्णय होने पर अवग्रह या अवबोध-ज्ञानरूप परिणत हो जाता है। अवग्रह के पूर्व दर्शन होता है, किन्तु वह दर्शन नहीं है। वह दर्शन के ज्ञानरूप में परिणत होने की प्रथम कड़ी है। अवग्रह के भी दो भेद हैं - (1) व्यंजनावग्रह और (2) अर्थावग्रह / अस्पष्ट ग्रहण को व्यंजनावग्रह कहते हैं और स्पष्ट ग्रहण को अर्थावग्रह कहते हैं। आचार्य पूज्यपाद ने एक दृष्टान्त के द्वारा दोनों का भेद स्पष्ट करते हुए लिखा हैजैसे मिट्टी के नये सकोरे पर जल के दो-चार छींटे देने से वह गीला नहीं होता, किन्तु बार-बार पानी के छींटे देते रहने पर वह कोरा सकोरा धीरे-धीरे गीला हो जाता है, इसी प्रकार श्रोत्र, घ्राण आदि इन्द्रियों में आया हुआ शब्द अथवा गन्ध आदि दो-तीन क्षण तक स्पष्ट ही नहीं होते, किन्तु बार-बार ग्रहण करने पर स्पष्ट हो जाते हैं, अतः स्पष्ट ग्रहण से पहले ज्ञेय विषय और ज्ञानेन्द्रिय का संयोग मात्र व्यंजनावग्रह होता है। वह व्यंजनावग्रह आगे चलकर अर्थावग्रह को जन्म देता है, किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि जैसे अवग्रहरूपी ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होता है, वैसे ही अर्थावग्रह भी व्यंजनावग्रहपूर्वक ही होता है, क्योंकि अर्थावग्रह तो पांचों इन्द्रियों से और मन से होता है, किन्तु व्यंजनावग्रह चक्षु और मन के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों से ही होता है। जो इन्द्रियाँ अपने विषय को उससे सम्पर्क करके जानती हैं, उन्हीं से व्यंजनावग्रह होता है। ऐसी इन्द्रियाँ केवल चार हैं - स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र / ये चारों इन्द्रियाँ अपने विषय से सम्बन्ध होने पर ही स्पर्श, रस, गन्ध और शब्द को जानती