________________ जैन धर्म एवं दर्शन-335 जैन ज्ञानमीमांसा -43 मात्र से ज्ञान नहीं होता है। ज्ञान के लिए चेतना या उपयोग अर्थात् उस विषय के प्रति चेतना की सजगता का होना आवश्यक है। इसी प्रकार, जैन-दार्शनिक बौद्धों के समान निर्विकल्पता को भी प्रत्यक्ष का आधार नहीं मानते हैं। क्योंकि प्रमाण में निश्चयात्मकता होती है और निर्विकल्पक-ज्ञान में निश्चयात्मकता नहीं होती है, अतः निर्विकल्प अनुभूति भी प्रमाण नहीं हो सकती, इसलिए जैन-दार्शनिक ज्ञान और दर्शन में अन्तर करते हैं और कहते हैं कि मात्र ज्ञान ही प्रमाणरूप होता है, दर्शन नहीं। उनके अनुसार, बौद्धों का निर्विकल्प-प्रत्यक्ष वस्तुतः दर्शन ही है। जैन-दार्शनिक नैयायिकों के समान व्यवसायात्मकता को प्रमाणभूत ज्ञान का आवश्यक तत्त्व मानते हैं। इस प्रकार, प्रत्यक्ष के संबंध में जैन-दार्शनिकों का बौद्धों से भी मतभेद है। दूसरे, जैन-दार्शनिक प्रत्यक्ष के विषय बाह्यार्थ या वस्तुरूप विषय की सत्ता को स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि यदि बाह्यार्थ नही होंगे, तो उनके अभाव में प्रत्यक्ष ज्ञान की सम्भावना भी नहीं होगी। क्योंकि मानसिक-संप्रत्यय भी बाह्यार्थ के निमित्त से ही बनते हैं, अतः प्रत्यक्ष के विषय को लेकर जैनों का बौद्धों के विज्ञानवाद से भी मतभेद है। दूसरे, उनकी विशेषता यह है कि वे बाह्यार्थ के संवेदन के साथ-साथ मानसिक-संवेदनों को भी प्रत्यक्ष का विषय मानते हैं और इसीलिए वे कहते हैं कि भ्रान्त ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है, प्रत्यक्षाभास होता है। इस प्रकार, जैन-दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष के सन्दर्भ में जो मत प्रस्तुत किया है, वह नैयायिकों और बौद्धों से भिन्न है। प्रत्यक्ष के संबंध में जैनों कि जो अवधारणा है, वह बौद्धदर्शन और न्यायदर्शन के मध्य समन्वय स्थापित करती हुई प्रतीत होती है। उनके अनुसार, प्रत्यक्ष-इन्द्रियों और मन के संयोग से तथा बाह्यार्थ के निमित्त से जो ऐन्द्रिक या मानसिक-संवेदना (ज्ञान) उत्पन्न होती है, वही प्रत्यक्ष या सांव्यावहारिक है। पारमार्थिक-प्रत्यक्ष अवधि, मनःपर्यव एवं केवलज्ञान-रूप होता है, जिनकी चर्चा हम ज्ञानमीमांसा के अन्तगत कर चुके हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्राचीनकाल में मन, इन्द्रियाँ, प्रकाश और परोपदेश के निमित्त से होने वाले इस सांव्यावहारिकप्रत्यक्ष को परोक्ष भी कहा गया है। मतिज्ञान के समान ही सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष की भी ज्ञान के स्तरों की