________________ जैन धर्म एवं दर्शन-334 . . जैन ज्ञानमीमांसा-42 अन्य प्रमाण की अपेक्षा न हो - ऐसे ज्ञान को विशद कहा गया है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए प्रमाणनयतत्त्वालोक में भी कहा गया था कि अनुमान आदि की अपेक्षा भी विशेष रूप से ज्ञेय विषय का प्रकाशन करने वाला (ज्ञान) स्पष्ट होता है। इस प्रकार, स्पष्ट या विशद शब्दों की परिभाषा करते हुए यह कहा गया है कि यह प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है - सांव्यावहारिक और पारमार्थिक। पारमार्थिक-प्रत्यक्ष का सम्बन्ध आत्मिक-ज्ञान से है और सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष का सम्बन्ध ऐन्द्रिक-ज्ञान से है। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए प्रमाणनयतत्त्वालोक में यह कहा भी गया है कि सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है - इन्द्रियों के माध्यम से होने वाला और मन के माध्यम से होने वाला। इस प्रकार, जैन आचार्यों ने प्रत्यक्ष के दो प्रकार करते हुए इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले ज्ञान को सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष में और आत्मा के द्वारा होने वाले ज्ञान को पारमार्थिक-प्रत्यक्ष में अन्तर्भूत किया है और पारमार्थिक-प्रत्यक्ष के अन्तर्गत अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान को ही माना है। इन तीनों ज्ञानों की चर्चा ज्ञानमीमांसा के अन्तर्गत पूर्व में की जा चुकी है, यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन-दार्शनिक न्यायदर्शन के इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से होने वाले प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष-प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष की निम्न परिभाषा दी गई है - ___"इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमन्यपदेशमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्" सामान्यतया, न्यायदर्शन इन्द्रियों का अपने विषय से सम्पर्क होने पर और अन्य रूप से व्यपद्देश्य न होने वाले, अव्यभिचारी और निश्चयात्मक-ज्ञान को ही प्रत्यक्ष माना है, किन्तु जैन-दार्शनिकों ने उसकी प्रत्यक्ष की इस अवधारणा का खण्डन किया है। जैन-दार्शनिकों के अनुसार, इन्द्रियों का अपने विषय से सम्पर्क या सन्निकर्ष ज्ञान का निमित्त कारण तो हो सकता है, किन्तु वह ज्ञानरूप नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रियाँ और उनका अर्थ से सन्निकर्ष या संयोग - दोनों ही जड़ होते हैं। दो जड. तत्त्वों के सन्निकर्ष अर्थात् संयोग से ज्ञानरूप चेतना उत्पन्न नहीं हो सकती, इसलिए जैन- दार्शनिकों का मानना है कि इन्द्रिय और उसके विषयों के संयोग