________________ जैन धर्म एवं दर्शन-332 जैन ज्ञानमीमांसा-40 उसे आत्मिक-प्रत्यक्ष के रूप में ही व्याख्यायित किया गया था। वहाँ कालान्तर में अन्य दर्शनों के प्रभाव से प्रत्यक्ष को भी सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष और पारमार्थिक-प्रत्यक्ष - ऐसे दो विभागों में बाँटकर मतिज्ञान के ऐन्द्रिक-बोध को परोक्ष ज्ञान के स्थान पर प्रत्यक्ष ज्ञान के अन्तर्गत मान लिया गया। मेरी दृष्टि में जैनों को यह इसलिए करना पड़ा कि अन्य सभी दार्शनिक-परम्पराएँ ऐन्द्रिक-प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष ही मान रही थीं। उनका तो सूत्रवाक्य यही था- 'इन्द्रियार्थसन्निकर्ष उत्पन्नं ज्ञानं प्रत्यक्षम्' / यहाँ जैनों ने नैयायिकों के साथ समन्वय करने का प्रयत्न किया और बौद्धों के निर्विकल्पात्मक-ज्ञान को प्रत्यक्ष-प्रमाण मानने से इंकार किया और कहा कि जो ज्ञान निर्विकल्प होगा, वह प्रमाणभूत नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान को प्रमाणभूत होने के लिए उसे निर्णयात्मक या व्यवसायात्मक होना चाहिए। निर्विकल्पात्मक-ज्ञान निर्णयात्मक नहीं होने से प्रमाणभूत नहीं हो सकता। दूसरे, उन्होंने अपने परोक्ष-प्रमाण में से मतिज्ञान को निकालकर उसके ऐन्द्रिक-प्रत्यक्ष वाले अंश को सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष के अन्तर्गत वर्गीकृत कर उसे भी प्रमाणरूप मान लिया। इसके साथ ही, परोक्ष-ज्ञान के रूप में स्वीकृत अनुमान और आगम को भी प्रमाणरूप माना। न केवल इतना ही, उन्होंने परोक्ष-ज्ञान को प्रमाणभूत मानने वाले नैयायिकों के उपमान को, मीमांसकों के 'अर्थापत्ति' को और वेदान्तियों के अभाव को प्रमाणरूप नहीं मानकर उनके स्थान पर तीन नए परोक्ष-प्रमाण स्थापित किए - 1. स्मृति, 2. प्रत्यभिज्ञा और 3. ऊह या तर्क। इस प्रकार, प्रमाण-संख्या भाट्टमीमांसकों के समान छह रखकर भी प्रमाण के क्षेत्र में एक नयी स्थापना की। आगे हम इन्हीं छह प्रमाणों की विस्तार से चर्चा करेंगे। प्रत्यक्ष-प्रमाण जैनदर्शन में प्राचीनकाल में जिन 3 और परवर्तीकाल में जिन 6 प्रमाणों का उल्लेख हुआ है, उनमें प्रत्यक्ष-प्रमाण अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसे अन्य सभी भारतीय-दर्शनों ने स्वीकृत किया है, तथा इसके अभाव में अन्य प्रमाण भी कार्यकारी नहीं होते हैं। प्रत्यक्ष' शब्द मूलतः दो शब्दों को मिलाकर बना है - प्रति + अक्ष। जैन-परम्परा में 'अक्ष' शब्द