________________ जैन धर्म एवं दर्शन-331 जैन ज्ञानमीमांसा-39 ज्ञान अधिगतार्थक पूर्वार्थक हैं और इन्हें सामान्यतया अप्रमाण समझा जाता है। यदि इन्हें अप्रमाण मानते हो, तो (तुम्हारा) सम्यगर्थनिर्णयरूप लक्षण अतिव्याप्त हो जाता है ? प्रतिपक्ष के इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य हेमचन्द्र ने कहा था कि यदि धारावाहिक ज्ञान और स्मृति प्रमाण हैं, तो फिर प्रमाण के लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद निरर्थक हो जाता है। पं. सुखलालजी का कथन है कि श्वेताम्बर आचार्यों में हेमचन्द्र की खास विशेषता यह है कि उन्होंने गृहीतग्राही और ग्रहीष्यमाणग्राही में समत्व दिखाकर सभी धारावाहिक ज्ञानों में प्रामाण्य का जो समर्थन किया है, वह विशिष्ट है। यही कारण है कि हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण-लक्षण में अपूर्व या अनधिगत पद की उद्भावना नहीं की है। . वस्तुतः, हेमचन्द्र की प्रमाण-लक्षण की अवधारणा हमें पाश्चात्यतर्कशास्त्र के सत्य के संवादितासिद्धान्त का स्मरण करा देती है। पाश्चात्य-तर्कशास्त्र में सत्यता-निर्धारण के तीन सिद्धान्त हैं - 1. संवादिता-सिद्धान्त, 2. संगति-सिद्धान्त और 3. उपयोगितावादी या अर्थक्रियावादी-सिद्धान्त / उपर्युक्त तीन सिद्धान्तों में हेमचन्द्र का सिद्धान्त अपने प्रमाण-लक्षण में अविसंवादित्व और अपूर्वता के लक्षण नहीं होने से तथा प्रमाण को सम्यगर्थनिर्णयः के रूप में परिभाषित करने के कारण सत्य के संवादिता-सिद्धान्त के निकट है। इस प्रकार, आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण-लक्षण-निरूपण में अपने पूर्वाचार्यों के मतों को समाहित करते हुए भी एक विशेषता प्रदान की है। प्रमाण-लक्षण-निरूपण में यही उनका वैशिष्ट्य है। इसी प्रकार, प्रमाण-लक्षण-निरूपण में जैनों का दूसरा वैशिष्ट्य यह है कि उन्होंने इसके माध्यम से बौद्ध-नैयायिक और मीमांसक-दर्शनों के मध्य एक समन्वय का सूत्र प्रस्तुत किया है। प्रमाण-लक्षण-निरूपण के साथ प्रमाण के प्रकारों को लेकर भी जैन-दार्शनिकों का एक वैशिष्ट्य है। प्रथम तो, जैन-दार्शनिकों ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष- ऐसे दो प्रमाणों की ही चर्चा की, किन्तु कालान्तर में उन्होंने अपनी प्रमाण-चर्चा में विकास भी किया। जहाँ आगमों में नन्दीसूत्र को छोड़कर शेष आगमों में तथा तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में प्रत्यक्ष को एक ही प्रकार का माना गया था और