________________ जैन धर्म एवं दर्शन-330 - 'जैन ज्ञानमीमांसा-38 प्रवेश अनावश्यक है। पं. सुखलालजी के अनुसार, ऐसा करके उन्होंने एक ओर अपने विचार-स्वातन्त्र्य को स्पष्ट किया, वही दूसरी ओर, पूर्वाचार्यों के मत का खण्डन न करके, 'स्व' पद के प्रयोग करने की उनकी दृष्टि दिखाकर उनके प्रति आदर भी व्यक्त किया, साथ ही, ज्ञान के स्वभावतः स्व-प्रकाशक होने से उन्होंने अपने प्रमाण-लक्षण में 'स्व' पद नहीं रखा। इसी प्रकार, आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्रमाण-लक्षण में 'अधिगत' या 'अपूर्व' पद क्यों नहीं रखा ? इसका उत्तर भी प्रमाणमीमांसा में धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य की चर्चा में मिल जाता है। भारतीय-दर्शन में धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य को लेकर दो दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। एक ओर, न्याय-वैशेषिक और मीमांसकों के प्रभाकर एवं भाट्ट - सम्प्रदाय कुछ सूक्ष्म मतभेदों को छोड़कर सामान्यतया धारावाहिक ज्ञान के प्रामाण्य को स्वीकार करते हैं, दूसरी ओर, बौद्ध-परम्परा सामान्य व्यक्ति (प्रमाता) के ज्ञान में सूक्ष्म काल-भेद का ग्रहण नहीं होने से धारावाहिकं ज्ञान को अप्रमाण मानती है, यद्यपि कुमारिल भट्ट की परम्परा भी अपने प्रमाण-लक्षण में अपूर्व पद रखने के कारण सूक्ष्म काल-कला के भान (बोध) को मानकर ही उसमें प्रामाण्य का उत्पादन करती है। इसी प्रकार, बौद्ध-दार्शनिक अर्चट ने अपने हेतुबिन्दु की टीका में सूक्ष्म-कला के भान के कारण योगियों के धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण माना है। जहाँ तक जैनों का प्रश्न है, सामान्यतया, कुछ दिगम्बर-आचार्यों ने अपने प्रमाण-लक्षण में 'अपूर्व पद को स्थान दिया है, अतः उनके अनुसार भी धारावाहिक ज्ञान जब क्षण-भेदादि की स्थिति में विशेष का बोध कराता हो और विशिष्ट प्रमाजनक हो, तभी वह प्रमाण कहा जाता है। इसके विपरीत, श्वेताम्बर-परम्परा के आचार्य अपने प्रमाण-लक्षण में 'अपूर्व' पद नहीं रखते हैं और स्मृति के समान धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण मानते हैं। श्वेताम्बर आचार्यों में हेमचन्द्र ने अपने प्रमाणलक्षण में 'अपूर्व' पद क्यों नहीं रखा, इसका उत्तर भी उनकी प्रमाणमीमांसा में मिल जाता है। आचार्य स्वयं ही स्वोपज्ञ-टीका में इस सम्बन्ध में पूर्वपक्ष की उद्भावना करके उत्तर देते हैं। प्रतिपक्ष का कथन है कि धारावाहिक स्मृति आदि