________________ जैन धर्म एवं दर्शन-323 जैन ज्ञानमीमांसा -31 पुनः दो मत देखे जाते हैं। जहाँ बौद्धों ने ज्ञान को प्रमाण मानकर भी ज्ञानाकारता/तदाकारता को प्रमाण रूप माना, वहीं जैनों ने इस तदाकारता का .खण्डन करके स्व–पर प्रकाशकत्व को प्रमाण रूप माना। जहाँ नैयायिकों का कहना था कि ज्ञान पर (पदार्थ) प्रकाशक है, अतः ज्ञान के करण (साधन) ही प्रमाण होते हैं, वे 'इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष' को प्रमाण मानते थे। जहाँ तत्त्वार्थसूत्र में जैनों ने 'तत् प्रमाणे' कहकर ज्ञान को प्रमाण मानने के मत का समर्थन किया था, वहाँ नैयायिकों ने ज्ञान के करण अर्थात् साधन-इंन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष अर्थात् संयोग को ही प्रमाण माना, यद्यपि बौद्ध और जैन - दोनों ज्ञान को ही प्रमाण मानते थे। जैनों के अनुसार, न तो बौद्धों द्वारा मान्य ज्ञान में वस्तु की चेतना, जो तदाकारता बनती है, वही ज्ञानरूपता प्रमाण है और न नैयायिकों द्वारा मान्य 'इन्द्रियार्थसन्निकर्ष' ही प्रमाण है। जैनाचार्यों ने इस सम्बन्ध में बौद्धों और नैयायिकों - दोनों की आलोचना की। नैयायिकों के मत के अनुसार, प्रमाण ‘पर' (पदार्थ) का प्रकाशक अर्थात् पदार्थ का ज्ञान कराने वाला होता है, जबकि बौद्धों ने यह माना था कि प्रमाण 'स्व' का अर्थात् अपने ज्ञान का ही ज्ञान कराता है, अर्थात् वह स्व-प्रकाशक है। इस प्रकार, प्रमाण के लक्षण में दो प्रकार की अवधारणाएं बनीं - एक, प्रमाण स्व-प्रकाशक है और दूसरी, प्रमाण पर (पदार्थ)-प्रकाशक है। प्रमाण पर-प्रकाशक है - इस मत के समर्थक नैयायिक और वैशेषिक- दर्शन थे, जबकि, प्रमाण मात्र स्व-प्रकाशक है - इस मत के समर्थक विज्ञानवादी-बौद्ध थे। जैनों के सामने जब प्रमाण के स्वप्रकाशकत्व और परप्रकाशकत्व का प्रश्न आया, तो उन्होंने अपनी अनेकान्त-दृष्टि के आधार पर उसे स्व-परप्रकाशक माना। सर्वप्रथम श्वेताम्बर-परम्परा में आचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार (1) में और दिगम्बरं-परम्परा में आचार्य समन्तभद्र ने सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थसूत्र की टीका (1/10) में इस मत का समर्थन किया और इस प्रकार प्रमाण का जैनों ने जो लक्षण निर्धारित किया, उसमें उन्होंने उसे 'स्व' अर्थात् अपने ज्ञान का तथा 'पर' अर्थात् पदार्थ-ज्ञान का प्रकाशक माना। बौद्ध पदार्थ-ज्ञान को इसलिए प्रमाणभूत नहीं मानते थे कि विज्ञानवादी बौद्ध ज्ञान से पृथक् ज्ञेय अर्थात् पदार्थ की स्वतन्त्र सत्ता ही