________________ जैन धर्म एवं दर्शन-322 जैन ज्ञानमीमांसा-30 अनुमान और आगम या शब्द - ऐसे तीन ही प्रमाण माने थे। यद्यपि जैन-आगमों ने उपमान को प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया था, किन्तु कालान्तर में इसका अन्तर्भाव अनुमान में करके स्वतंत्र प्रमाण के रूप में इसका परित्याग कर दिया गया था। जहाँ तक भारतीय-चिन्तन का प्रश्न है, उसमें सामान्यतया जैनों को तीन प्रमाण मानने वाला ही स्वीकार किया गया है। भारतीय-चिन्तन में प्रमाणों की संख्या सम्बन्धी चर्चा को लेकर विभिन्न दर्शनों में इस प्रकार की व्यवस्था रही है - (1) चार्वाक-दर्शन- 1 प्रत्यक्ष-प्रमाण / (2) वैशेषिक एवं बौद्ध-दर्शन - 1. प्रत्यक्ष और 2. अनुमान प्रमाण / (3) सांख्य एवं प्राचीन जैन-दर्शन - 1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान और 3. आगम या शब्द प्रमाण। (4) न्यायदर्शन- 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. शब्द और 4. उपमान-प्रमाण / (5) मीमांसादर्शन (प्रभाकर-सम्प्रदाय) - 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. शब्द, 4. उपमान और 5. अर्थापत्ति-प्रमाण। (6) मीमांसादर्शन का भाट्ट-सम्प्रदाय और वेदान्त- 1. प्रत्यक्ष, 2. अनुमान, 3. शब्द, 4. उपमान, 5. अर्थापत्ति और 6. अभाव-प्रमाण / प्रमाण-लक्षण सामान्यतः, 'प्रमाण' शब्द से प्रामाणिक-ज्ञान का ही अर्थबोध होता है, किन्तु कौनसा ज्ञान प्रामाणिक होगा, इसके लिये विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के लक्षणों का निरूपण किया गया है। सामान्यतः, उस ज्ञान को ही प्रमाण माना जा सकता था, जो ज्ञान किसी अन्य ज्ञान या प्रमाण से खण्डित न हो और वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करे, किन्तु कालान्तर में प्रमाण के लक्षणों की चर्चा काफी विकसित हुई। सामान्यतः, इसमें प्रमाण के स्वरूप को लेकर दो वर्ग सामने आए - प्रथम वर्ग में नैयायिकों (न्यायदर्शन) का कहना यह था कि प्रमाण वह है, जो पदार्थ को उसके यथार्थ रूप में जानता हो, किन्तु इसके विपरीत, दूसरे वर्ग में बौद्धों का कहना यह था कि प्रमाण वह है, जो अपने स्वानुभूत ज्ञान को ही प्रामाणिक रूप से जानता है। इस दूसरे वर्ग ने प्रमाण के संबंध में यह निश्चित किया कि स्वानुभूत ज्ञान ही प्रमाण है। इस प्रकार, प्रमाण-लक्षण के सन्दर्भ में