________________ जैन धर्म एवं दर्शन-321 जैन ज्ञानमीमांसा -29 एक स्थान पर नैयायिकों का अनुसरण करते हुए चार प्रमाणों का उल्लेख देखा जा सकता है। कालक्रम की अपेक्षा से आगमयुग के पश्चात् जैनदर्शन में 'अनेकान्त स्थापना का युग आता है। इसका काल लगभग चौथी शताब्दी से प्रारम्भ करके आठवीं-नवीं शताब्दी तक जाता है। इस कालखण्ड के प्रथम दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर और दिगम्बर–परम्परा की अपेक्षा से समन्तभद्र माने जा सकते हैं। इस युग में प्रमाण-चर्चा का विकास हो रहा था। इस युग में प्रमाण को परिभाषित करते हुए जैनाचार्यों ने कहा- " प्रमीयते येन तत् प्रमाणम् ", अर्थात् जिसके द्वारा जाना जाता है, वह प्रमाण है, इस प्रकार ज्ञान का साधन है। तत्त्वार्थसूत्र (1/10) में सर्वप्रथम प्रत्यक्ष और परोक्ष- ऐसे दो प्रमाणों का ही उल्लेख मिलता है, उसमें जैनों के द्वारा मान्य पांच ज्ञानों को ही इन दो प्रमाणों में वर्गीकृत किया गया है। कालान्तर में 'नन्दीसूत्र' में प्रत्यक्ष-प्रमाण के दो विभाग किये गये - 1. पारमार्थिक-प्रत्यक्ष और 2. सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष। तत्त्वार्थसूत्र में प्रत्यक्ष के ऐसे दो विभाग नहीं करके मात्र पाँच ज्ञानों में मति और श्रुतज्ञान को परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्यव तथा केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है। यह स्पष्ट है कि जैनों ने लगभग पाँचवीं शताब्दी में ही ऐन्द्रिय-प्रत्यक्ष को, जो कि पूर्व में परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत ही आता था, लोक-परम्परा का अनुसरण करते हुए सांव्यावहारिक-प्रत्यक्ष नाम दिया। इस प्रकार, प्रत्यक्ष के दो विभाग सुनिश्चित हुए - सांव्यावहारिकप्रत्यक्ष और पारमार्थिकप्रत्यक्ष / इनमें पारमार्थिकप्रत्यक्ष को आत्मिकप्रत्यक्ष और सांव्यावहारिकप्रत्यक्ष को ऐन्द्रिकप्रत्यक्ष भी कहा गया। परोक्षप्रमाण के विभागों की चर्चा परवर्तीकाल में उठी थी। दिगम्बर-परम्परा में अकलंक ने प्रायः आठवीं शती में और श्वेताम्बर-परम्परा में सिद्धऋषि ने लगभग नवीं शताब्दी में परोक्ष-प्रमाण के पाँच भेद किये, जो क्रमशः इस प्रकार हैं - (1) स्मृति, (2) प्रत्यभिज्ञान (पहचानना), (3) तर्क, (4) अनुमान और (5) आगम। दिगम्बर-परम्परा में आचार्य अकलंक ने भी प्रत्यक्ष को मिलाकर अपनी कृतियों में छ: प्रमाणों की चर्चा की थी - (1) प्रत्यक्ष, (2) स्मृति, (3) प्रत्यभिज्ञान, (4) तर्क, (5) अनुमान और (6) आगम, किन्तु इस व्यवस्था के पूर्व जैनों में भी प्रत्यक्ष,