________________ जैन धर्म एवं दर्शन-320 जैन ज्ञानमीमांसा-28 लाभ तो यह हुआ कि पक्ष और प्रतिपक्ष का अध्ययन कर वे उन दोनों की कमियों और तार्किक-असंगतियों को समझ सके तथा दूसरे, पूर्व-विकसित उनकी अनेकान्तदृष्टि का लाभ यह हुआ कि वे उन दोनों के मध्य समन्वय स्थापित कर सके। उन्होंने पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच समन्वय स्थापित करने का जो प्रयास किया, उसी में उनका सिद्धान्त स्थिर हो गया और यही उनका न्याय एवं क्षेत्र में विशिष्ट अवदान कहलाया। इस क्षेत्र में उनकी भूमिका सदैव एक तटस्थ न्यायाधीश की रही। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती सिद्धान्तों की समीक्षा के माध्यम से सदैव अपने चिन्तन को समृद्ध किया और जहाँ आवश्यक लगा, वहाँ अपनी पूर्व मान्यताओं को संशोधित और परिमार्जित भी किया। चाहे सिद्धसेन हों या समन्तभद्र, अकलंक हों या विद्यानन्द, हरिभद्र हों या हेमचन्द्र - सभी ने अपने ग्रन्थों के निर्माण में जहाँ अपनी परम्पराओं के पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों का अध्ययन किया, वहीं अन्य परम्परा के पक्ष और प्रतिपक्ष का भी गम्भीर अध्ययन किया, अतः जैनन्याय या प्रमाण-विचार स्थिर न रहकर गृतिशील बना रहा। वह युग-युग में परिष्कृत, विकसित और समृद्ध होता रहा। . इससे यह सिद्ध होता है कि जैनदर्शन में प्रमाण-चर्चा एक परवर्ती अवधारणा है। नैयायिकों, मीमांसकों और बौद्धों के पश्चात् ही जैनों ने प्रमाण-विवेचन को अपना विषय बनाया था। सम्भवतः, इसका काल लगभग ईसा की चौथी-पांचवी शताब्दी से प्रारम्भ होता है, क्योंकि लगभग तीसरी शताब्दी के जैन-ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में 'ज्ञानं प्रमाणम्'- मात्र इतना ही उल्लेख मिलता है। जैन-आगमों में भी पमाण (प्रमाण) शब्द का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु उनमें प्रायः प्रमाण से क्षेत्रगत या कालगत परिमाण को ही सूचित किया गया है। प्राचीन स्तर के दिगम्बर-ग्रन्थों में भी उक्त प्रमाण' शब्द वस्तुतः नापतौल की ईकाई के रूप में ही माना गया है। आगमों में केवल एक स्थान पर चार प्रमाणों की चर्चा हुई है, किन्तु वे चार प्रमाण वस्तुतः नैयायिकों के प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान-प्रमाण के समरूप ही हैं, अतः यह कहा जा सकता है कि जैनों में प्रमाण-चर्चा का विकास एक परवर्ती घटना है। आगमों में उक्त प्रमाण-चर्चा का विशेष उल्लेख हमें नहीं मिलता है। जैसा कि हमने पूर्व में कहा, आगमों में मात्र