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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-314 .. जैन ज्ञानमीमांसा-22 में सर्वज्ञ स्वीकार कर लिया गया, जिस अर्थ में जैन तीर्थंकरों अथवा ईश्वरवादी-दर्शनों में ईश्वर को सर्वज्ञ माना जाता है। सर्वज्ञत्व के इस अर्थ को लेकर कि "सर्वज्ञ हस्तामलकवत् सभी जागतिक-पदार्थों की त्रैकालिक-पर्यायों को जानता है", जैन विद्वानों ने भी काफी ऊहापोह किया है। इतना ही नहीं, जैनदर्शन में सर्वज्ञता की नई परिभाषाएं भी प्रस्तुत की गई हैं। कुन्दकुन्द और हरिभद्र का दृष्टिकोण __ प्राचीन युग में आचार्य कुन्दकुन्द और याकिनीसुनू हरिभद्र ने सर्वज्ञता की त्रिकालदर्शी उपयुक्त परम्परागत परिभाषा को मान्य रखते हुए भी नई परिभाषाएँ प्रस्तुत की। आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में कहा है - जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवलीभगवं। केवलणाणी जाणदिपस्सदि नियमेण अप्पाणं।। . - नियमसार, 159 सर्वज्ञ लोकालोक जैसी आत्मेतर सभी वस्तुओं को जानता है- यह व्यवहारनय है, जबकि यह कहना कि सर्वज्ञ अपने आत्मस्वरूप को जानता है- यह परमार्थदृष्टि है। इसके अतिरिक्त, नियमसार (166), प्रवचनसार (80) एवं समयसार (11) द्रष्टव्य हैं। आचार्य हरिभद्र ने भी सर्वज्ञता का सर्वसम्प्रदाय–अविरुद्ध अर्थ किया था। पं. सुखलालजी लिखते हैं कि प्रथमतः हरिभद्र ने सर्वज्ञत्व के त्रैकालिकज्ञान होने का हेतुवाद से समर्थन किया, किन्तु जब उनको हेतुवाद में त्रुटि या विरोध दिखाई दिया, तो उन्होंने सर्वज्ञत्व सर्वसम्प्रदाय अविरुद्ध अर्थ किया, 'अपना योग सुलभ माध्यस्थ भाव- यह अर्थ प्रकट किया (देखें- दर्शन और चिन्तन, खण्ड 2, पृ. 553) / पं. सुखलालजी का दृष्टिकोण ___ वर्तमान युग के पण्डित सुखलालजी ने आचारांग एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति के सन्दर्भो के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आत्म, जगत् एवं साधना- मार्ग सम्बन्धी दार्शनिक-ज्ञान को ही उस युग में सर्वज्ञत्व माना जाता था, न कि त्रैकालिक-ज्ञान को। जैन-परम्परा का सर्वज्ञत्व सम्बन्धी
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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