________________ जैन धर्म एवं दर्शन-315 जैन ज्ञानमीमांसा -23 दृष्टिकोण मूल में केवल इतना ही था कि द्रव्य और पर्याय उभय को समानभाव से जानना ही ज्ञान की पूर्णता है। बुद्ध जब मालुंक्यपुत्त नामक अपने शिष्य से कहते हैं कि मैं चार आर्यसत्यों के ज्ञान का ही दावा करता हूँ और दूसरे अगम्य एवं काल्पनिक तत्त्वों के ज्ञान का नहीं, तब वह वास्तविकता की भूमिका पर हैं। उसी भूमिका के साथ महावीर के सर्वज्ञत्व की तुलना करने पर भी फलित यही होता है कि अत्युक्ति और अल्पोक्ति नहीं करने वाले सन्त-प्रकृति के महावीर द्रव्य-पर्यायवाद की पुरानी निर्ग्रन्थ-परम्परा के ज्ञान को ही सर्वज्ञत्व-रूप मानते होंगे। जैन और बौद्ध - परम्परा में इतना फर्क अवश्य रहा है कि अनेक तार्किक बौद्ध-विद्वानों ने बुद्ध को त्रैकालिक-ज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ स्थापित करने का प्रयत्न किया है, तथापि अनेक असाधारण (प्रतिभासम्पन्न) बौद्ध विद्वानों ने उनको सीधे-सादे अर्थ में ही सर्वज्ञ घटाया है। बौद्ध-परम्परा में सर्वज्ञ का अर्थ धर्मज्ञ या वस्तु-स्वरूप का ज्ञाता - इतना ही रहा है, जबकि जैन-परम्परा में सर्वज्ञ का सीधा-सादा अर्थ भुला दिया गया और उसके स्थान पर तर्कसिद्ध अर्थ ही प्रचलित एवं प्रतिष्ठित हो गया। जैन-परम्परा में सर्वज्ञ के स्थान पर प्रचलित पारिभाषिक शब्द केवलज्ञानी भी अपने मूल अर्थ में दार्शनिक-ज्ञान की पूर्णता को ही प्रकट करता है, न कि त्रैकालिक-ज्ञान को। 'केवल' शब्द सांख्यदर्शन में भी प्रकृतिपुरुषविवेक के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है और यदि यह शब्द सांख्य-परम्परा से जैन-परम्परा में आया है- यह माना जाए, तो इस आधार पर भी केवलज्ञान का अर्थ दार्शनिक-ज्ञान अथवा तत्त्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ही होगा, न कि त्रैकालिक-ज्ञान। आचारांग का यह वचन- 'जे एगं जाणई, से सव्वं जाणइ', यही बताता है कि जो एक आत्मस्वरूप को यथार्थ रूप से जानता है, वह उसकी सभी कषायपर्यायों को भी यथार्थ रूप से जानता है, न कि त्रैकालिक-सर्वज्ञता। केवलज्ञानी के सम्बन्ध में आगम का यह वचन कि 'सी जाणइ, सी ण जाणइ' (भगवतीसूत्र) भी यही बताता है कि केवलज्ञान त्रैकालिक-सर्वज्ञता नहीं है, वरन् आध्यात्मिक या दार्शनिक-ज्ञान है। डॉ. इन्द्रचन्द्रशास्त्री का दृष्टिकोण सर्वज्ञता के स्थान पर प्रयुक्त होने वाला अनन्तज्ञान भी त्रैकालिक-ज्ञान