________________ जैन धर्म एवं दर्शन-311 जैन ज्ञानमीमांसा -19 चारों ज्ञान एक साथ हो सकते हैं, किन्तु केवलज्ञान तो अकेला ही होता है। केवलज्ञान होने पर अन्य ज्ञानों की अपेक्षा ही नहीं होती है। केवलज्ञान होते ही इन चारों ज्ञानों की स्थिति वैसी ही हो जाती है, जैसे सूर्य के उदित होते ही चन्द्र और तारागणों के प्रकाश की कोई अपेक्षा नहीं रह जाती है, उनका प्रकाश गौण हो जाता है। केवलज्ञान को असहाय कहा है, अर्थात् इस ज्ञान के लिए किसी प्रकार के ज्ञानों या ज्ञान के साधनों की अपेक्षा नहीं होती है। दूसरे, केवलज्ञान अनन्त, पूर्ण एवं अपर्यवसित ज्ञान होता है। यह ज्ञान प्राप्त होने पर जाता भी नहीं है, इसलिए यह ज्ञान अप्रतिपाति ज्ञान है और इसमें न कभी कमी रहती है। यह सभी कालों के लोक में स्थित सभी मूर्त-अमूर्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों को जानता है। केवलज्ञान का विषय - सामान्यतया मति, श्रुत, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान का विषय रूपी-द्रव्य ही होते हैं। मनःपर्यवज्ञान का विषय भी सूक्ष्म रूपी-द्रव्य ही हैं, क्योकि वह भी मूर्त रूपी-द्रव्य की सूक्ष्म मनोवर्गणाओं को ही जानता है, जबकि केवलज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त अर्थात् रूपी और अरूपी - दोनों द्रव्य हैं, अतः केवलज्ञान पुद्गल के अतिरिक्त आत्मा, धर्म, अधर्म और आकाश - ऐसी पांचों अस्तिकायों को भी या काल सहित छहों द्रव्यों को भी जानता है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में केवलज्ञान का विषय सभी द्रव्यों की लोक और अलोकवर्ती सभी पर्यायों को बताया है, इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र में केवलज्ञान का विषय-क्षेत्र बताते हुए कहा गया है कि 'सर्वद्रव्येषु वा सर्वपर्यायेषु'। वह लोक-अलोक में स्थित सर्वद्रव्यों की सर्वत्रैकालिक पर्यायों (अवस्थाओं) को जानता है, अतः उसके विषय क्षेत्र की अपेक्षा से लोक और अलोक- दोनों ही हैं, साथ ही, द्रव्यों की अपेक्षा से वह लोक-अलोक के सभी द्रव्यों को और भाव एवं काल की अपेक्षा से उनकी त्रैकालिक पर्यायों को भी जानता है, अतः वह केवलज्ञान त्रैकालिक ज्ञान है, अतः वह भूत, वर्तमान और भविष्य - त्रिकालों को जानता है। नन्दीसूत्र (33) के अनुसार, जो ज्ञान सर्वद्रव्यों, सर्वक्षेत्रों, सर्वकालों और सर्वभावों (पर्यायों या अवस्थाओं) को जानता है, वह केवलज्ञान है। ___ किन्तु, केवलज्ञान के विषय के सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द का मन्तव्य