________________ जैन धर्म एवं दर्शन-310 जैन ज्ञानमीमांसा-18 पञचेन्द्रिय समनस्क (संज्ञी) जीव तो ढाई द्वीप से बाहर भी होते हैं, अतः मेरी दृष्टि में मनःपर्यवज्ञान स्वमन की पर्यायों अर्थात् मनोदशाओं का ज्ञान है। वह आत्मसजगता या अप्रमत्तता की अवस्था है। यह ज्ञाता-द्रष्टाभाव में आत्मरमणता की स्थिति है। अतः, जैन-दर्शन में यह माना गया है कि तीर्थकर दीक्षा ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। मनःपर्यवज्ञान के भेद . मनःपर्यवज्ञान के दो भेद हैं - ऋजुमति और विपुलमति / यद्यपि अपने विषय आदि की अपेक्षा से मनःपर्यवज्ञान में भेद नहीं हैं, फिर भी चित्तवृत्ति की सरलता और व्यापकता की अपेक्षा से या अपने विषय की अपेक्षा से उसमें भेद हैं। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान चित्त की सरल वृत्तियों को जानता है या सरल मनोभावों को जानता है, संक्लिष्ट मनोभावों को नहीं। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान की अपेक्षा विपुलमति का विषय अधिक व्यापक होता है और वह मन के संक्लिष्ट परिणामों को भी जानता है, अतः एक अपेक्षा से इन दोनों मनःपर्यवज्ञानों में चित्तवृत्ति की सरलता या विशुद्धि की अपेक्षा से अन्तर है। एक अन्य अपेक्षा से इन दोनों में ज्ञान की स्पष्टता की अपेक्षा भी अन्तर होता है। केवलज्ञान कर्म-सिद्धान्त की अपेक्षा से ज्ञान के दो प्रकार हैं - 1. क्षायोपशमिक और 2. क्षायिक / मतिश्रुत आदि चारों ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, जबकि केवलज्ञान क्षायिक है। क्षायिक होने के कारण यह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय - इन चार घातीकर्मों का पूर्णतः क्षय होने पर ही होता है, अतः निरावरण और पूर्णज्ञान है। अनन्त और पूर्णज्ञान होने से इसमें न तो किसी प्रकार की अपूर्णता या कमी होती है और न इसे किसी प्रकार के अन्य साधनों की अपेक्षा होती है, अतः यह ज्ञान निरपेक्ष या असहाय होता है। ज्ञानावरण आदि घातीकर्मों का पूर्ण क्षय होने पर ही यह ज्ञान होता है, अतः पूर्णतः शुद्ध भी होता है। केवलज्ञान सभी ज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है। जैन-दर्शन की मान्यता है, किसी व्यक्ति में पांचों ज्ञानों में से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान - ये