________________ जैन धर्म एवं दर्शन-309 जैन ज्ञानमीमांसा -17 भी, इतना सत्य है कि मनःपर्यवज्ञान का विषय रूपी मूर्त-द्रव्य ही हैं, अमूर्त द्रव्य नहीं, क्योंकि द्रव्यमन में निर्मित ये आकृतियाँ भी द्रव्य मनोवर्गणाओं से ही बनती हैं। __मनःपर्यवज्ञान 'स्व' के मन की पर्यायों को जानता है या पर (दूसरों) के मन की पर्यायों को जानता है- यह प्रश्न भी विवादास्पद रहा है। जैन- ग्रन्थों में सामान्य रूप से यह कथन प्रचलित है कि मनःपर्यवज्ञानी न केवल अपने मन की पर्यायों (अवस्थाओं) को जानता है, अपितु दूसरों के मन की पर्यायों को भी जानता है। योगसूत्र (पतंजली) एवं मज्झिमनिकाय में परचित्त (दूसरों के चित्त) के ज्ञान की सम्भावना भी मानी गई है। इसी आधार पर जैन-परम्परा में भी मनःपर्यवज्ञान के द्वारा 'पर' चित्त-ज्ञान की अवधारणा पर बल दिया गया, किन्तु मेरी दृष्टि में यह मान्यता उचित नहीं है, क्योंकि मनःपर्यवज्ञान के लिए अप्रमत्तसंयत मुनि होने की जो शर्त लगाई गई है, वह शर्त आवश्यक इसलिए है कि अप्रमत्तसंयत मुनि ही अपनी मनोवृत्तियों को सम्यक् प्रकार से जान सकता है, प्रमत्तसंयत व्यक्ति भी नहीं। मनःपर्यवज्ञान के लिए अप्रमत्तता की शर्त यही सूचित करती है कि मनःपर्यवज्ञान स्वचित्त या अपने ही मन की पर्यायों का ज्ञान है। मनःपर्यवज्ञानी स्वचित्त का ज्ञाता होता है, अतः वह आत्म-सजग या अप्रमत्त होता है। दूसरे, मनःपर्यवज्ञान के लिए आत्मसजगता या अप्रमत्तता की स्थिति इसलिए भी आवश्यक मानी गई है, क्योंकि जो व्यक्ति मनो-विकल्पों का ज्ञाता-द्रष्टा होता है, वह उसी समय मनोविकल्पों का कर्ता नहीं होता है। मनःपर्यवज्ञान आत्मसजगता या स्व-बोध की अवस्था है, अतः उसमें 'पर' के विकल्पयुक्त चित्त जानने की प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। चाहे एक बार परम्परागत मान्यता के अनुसार यह मान भी लें कि मनः पर्यवज्ञानी में परचित्त को जानने की शक्ति होती है, किन्तु उसमें परचित्त को जानने का प्रयत्न नहीं होता है, अतः मेरी दृष्टि में मनःपर्यवज्ञान अपने मन की पर्यायों अर्थात् मानसिक अवस्थाओं या चित्तवृत्तियों का ज्ञान है, उसका सम्बन्ध स्वचित्त से ही है। परम्परागत दृष्टि से उसे परचित्त का ज्ञान मानने पर तो उसमें अनेक बाधाएँ आती हैं। यदि वह परचित्त का ज्ञान है, तो उसका क्षेत्र ढाई द्वीप से बाहर भी माना जाना था, क्योंकि