________________ जैन धर्म एवं दर्शन-308 जैन ज्ञानमीमांसा-16 अवधिज्ञानी केवल लोक को और उसमें स्थित सभी रूपी द्रव्यों को ही जानता है। परम अवधिज्ञान यद्यपि अप्रतिपाती है, फिर भी इसका समापन केवलज्ञान में हो जाता है। दूसरे, यह परम अवधिज्ञान की शक्ति लोकाकाश के बाहर जानने की है, किन्त लोकाकाश के बाहर रूपी द्रव्य हैं ही नहीं, अतः वह व्यवहार में लोकाकाश तक ही जानता है। परम अवधिज्ञान की प्राप्ति मात्र बारहवें गणस्थान में स्थित जीवों (आत्माओं) को ही होती है, अन्य किसी गुणस्थानवर्ती जीव को नहीं होती है। मनःपर्यवज्ञान और उसका विषय मनःपर्यवज्ञान के विषय को लेकर जैन-परम्परा में भी दो भिन्न मत प्रचलित रहे हैं। प्रथम मत के अनुसार मनःपर्यवज्ञान का विषय चिन्त्यमान् वस्तु है, अतः मनःपर्यवज्ञानी मन के ज्ञेय विषय या वस्तु के स्वरूप को जानता है। नियुक्ति-साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र इस मत के समर्थक हैं, यह वस्तुवादी प्राचीन मत है। दूसरे मत के अनुसार, मनःपर्यवज्ञान का विषय - चिन्तन में प्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएँ अर्थात् मनोवृत्तियां हैं। इस दूसरे पक्ष का समर्थन विशेषावश्यकभाष्य में मिलता है। इन दोनों मतों में मूल अन्तर यह है कि जहाँ प्रथम मत चिन्त्यमान् वस्तु को मनःपर्यवज्ञान का विषय मानता है, वहाँ दूसरे मत की अपेक्षा से मनःपर्यवज्ञान मनोवर्गणाओं अर्थात् पौदगलिक-द्रव्य मन की अवस्थाओं को ही विषय मानता है, अतः उसका विषय मनोविज्ञान या मानसिक अवस्था है। यह विज्ञानवादी मत है। जहाँ प्रथम मान्यता पर न्याय-वैशेषिक दर्शन का प्रभाव है, यह मत वस्तुवादी (Realist) है, वहीं दूसरे मत पर विज्ञानवादी बौद्धों का प्रभाव है। यह मत चेतनावादी (Idealist) है। सत्य यही है कि मनःपर्यवज्ञान मनोद्रव्य की चिन्त्यमान् वस्तु को नहीं, किन्तु उसकी मानसिक-आकृति (Mentalimage) को जानता है। मनःपर्यवज्ञान का विषय पौदगलिक द्रव्यमन है, फिर भी चिन्त्यमान् मन में चिन्त्यपदार्थ की जो आकृतियाँ बनती हैं, मनःपर्यवज्ञान उन्हीं आकृतियों को, जो पौदगलिक-मनोवर्गणाओं से बनती है, उनको जानता है, वह वस्तु को सीधे न जानकर वस्तु के मनोगत आकार को जानता है। उसका मनोआकृति का यह ज्ञान भी अपरोक्ष है, फिर भी उस आकृति की आधारभूत वस्तु का ज्ञान तो परोक्ष ही है। फिर