________________ जैन धर्म एवं दर्शन-307 जैन ज्ञानमीमांसा -15 वर्धमान अवधिज्ञान है। 4. हीयमान, अर्थात् जो क्रमशः क्षीण होता रहता है, वह अवधिज्ञानं हीयमान अवधिज्ञान है। 5. प्रतिपातिक, अर्थात् जो अवधिज्ञान एक. बार प्राप्त होने पर कुछ समय बाद समाप्त हो जाता है, प्रतिपातिक-अवधिज्ञान है और 6. अप्रतिपातिक अवधिज्ञान वह है, जो प्राप्त होने पर समाप्त नहीं होता है। अवधिज्ञान का क्षेत्र एवं विषय अवधिज्ञान का न्यूनतम क्षेत्र एक अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और अधिकतम क्षेत्र सम्पूर्ण लोक होता है। उसमें लोक के बाहर अलोक के कुछ भाग को जानने की शक्ति तो होती है, फिर भी अलोक में उसका विषय 'रूपी द्रव्य' नहीं होता है, अतः वह लोक में स्थित रूपी द्रव्यों को ही जानता है। दूसरे यह कि अवधिज्ञान केवल तीर्थकर, देव और नारक - तीनों को जन्मना होता है। नारक और देवता सभी दिशाओं और विदिशाओं में देखते हैं, फिर भी उनके अवधिज्ञान का क्षेत्र सीमित ही होता है। मात्र तीर्थकर को, जब वे केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व बारहवें गुणस्थान में होते हैं, तब वे परमअवधि को प्राप्त करते हैं, किन्तु कोई भी देव, नारक और तिर्यञच परम अवधिज्ञान को प्राप्त नहीं करते हैं। मनुष्यों में केवल वे मनुष्य, जो तद्भव में मोक्षगामी हैं, वे भी केवलज्ञान और निर्वाण के पूर्व बारहवें गुणस्थान में परम अवधिज्ञान को प्राप्त करते हैं। परम अवधिज्ञान अवधिज्ञान के जिन भेदों की चर्चा की, उनमें उसके निम्न दो भेद भी समाहित हैं - 1. प्रतिपाती-अवधिज्ञान और 2. अप्रतिपाती-अवधिज्ञान / परम–अवधिज्ञान अप्रतिपाती अवधिज्ञान है- यह प्राप्त होने पर जाता नहीं है, किन्तु इसका समापन केवलज्ञान में होता है। जब आत्मा में ज्ञानावरणीयकर्म का एक प्रदेश मात्र अवशिष्ट रह जाता है, तब यह परम अवधिज्ञान प्राप्त होता है। इसका विषय और क्षेत्र लोक के समस्त रूपी द्रव्य होते हैं। केंवलज्ञान में और परम अवधिज्ञान में अन्तर यह है कि केवलज्ञानी लोक में स्थित सभी रूपों और अरूपी-द्रव्यों को जानता है, जबकि परम