________________ जैन धर्म एवं दर्शन-306 जैन ज्ञानमीमांसा-14 अवधिज्ञान जैन-दर्शन में पंच ज्ञानों में अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान - ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। अवधिज्ञान शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है - सीमित ज्ञान / सीमित ज्ञान होते हुए भी यह प्रत्यक्ष ज्ञान है, क्योंकि इस ज्ञान में आत्मा मन एवं इन्द्रियों पर निर्भर नहीं रहता है, अतः इसे आत्मिक- प्रत्यक्ष अथवा अतीन्द्रिय-ज्ञान भी कहते हैं। केवलज्ञान या सर्वज्ञ के ज्ञान की अपेक्षा इसका विषय एवं क्षेत्र सीमित होने के कारण ही इसे अवधिज्ञान कहते हैं। षद्रव्यों में यह लोक में स्थित मात्र मूर्त पुद्गल-द्रव्य को जान पाता है। अवधिज्ञानी इन्द्रियों के माध्यम के बिना जगत् के भौतिक पदार्थों को जानने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। अन्य परम्परा में इसे अतीन्द्रिय ज्ञान (Extra Sensory Perception) कहते हैं, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सभी अवधिज्ञानियों की ज्ञान-सामर्थ्य समान नहीं होती है, उनमें तरतमता होती है, कम-से-कम एक अंगुल के असंख्यातवें भाग को और अधिकतम लोकान्त तक के भौतिक द्रव्यों को जानने की क्षमता उसमें होती है। यह अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है - 1. भवप्रत्यय और 2. क्षायोपशमिक। . तीर्थंकरों, देवों और नारकीय-जीवों को, जो अवधिज्ञान जन्म से ही प्राप्त होता है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। किसी प्रकार की साधना या चारित्रिक - पवित्रता के द्वारा मनुष्य या पंचेन्द्रिय समनस्क तिर्यंच जीवों अर्थात् पशुओं को जो अवधिज्ञान प्राप्त होता है, वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है। इसे क्षायोपशमिक इसलिए कहते हैं कि साधना के द्वारा पूर्व-बद्ध कर्मों के क्षय या उपशम से यह ज्ञान प्राप्त होता है। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान के छह भेद हैं - 1. आनुगमिक अवधिज्ञान, जो जीव का अनुगमन करता है, अर्थात् जो अवधिज्ञान जीव को जिस क्षेत्र या स्थान पर उत्पन्न होता है, वहाँ से उठकर जाने पर भी समाप्त नहीं होता है, वह आनुगमिक अवधिज्ञान कहलाता है। 2. अनानुगमिक अवधिज्ञान - वह है, जो उस क्षेत्र या स्थान से उठकर जाने पर भी समाप्त हो जाता है। 3. वर्धमान, अर्थात् जो अवधिज्ञान क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होता है, वह