________________ जैन धर्म एवं दर्शन-305 जैन ज्ञानमीमांसा-13 14. अनंगप्रविष्टश्रुत / इसके अतिरिक्त, श्रुत के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य - ऐसे दो विभाग भी किये गये हैं। अंगप्रविष्ट के आचारांग आदि से लेकर दृष्टिवाद तक 12 भेद हैं, इसमें भी दृष्टिवाद के अन्तर्गत भी 14 पूर्वो एवं अनेक ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है। अंगबाह्य ग्रन्थों के भी अनेक भेद हैं। नन्दीसूत्र में इसके दो भेद किये हैं- 1. आवश्यक और 2. आवश्यक-व्यतिरिक्त / पुनः, आवश्यक के सामायिक आदि छह भेद हैं। आवश्यक-व्यतिरिक्त के पुनः कालिक और उत्कालिक - ऐसे दो भेद हैं। इसके कालिक के अन्तर्गत 31 एवं उत्कालिक के अन्तर्गत 29 ग्रन्थों का उल्लेख है। वर्तमान में अंगबाह्य में 12 उपांग 6 छेद 4 मूल 10 प्रकीर्णक एवं 2 चूलिकासूत्र माने गये हैं। दिगम्बर-परम्परा में अंगबाह्य में 14 ग्रन्थ माने गये हैं, जबकि स्थानकवासी एवं श्वेताम्बर-तेरापंथ 12 उपांग 4 छेद 4 मूल एवं 1 आवश्यकसूत्र एवं इनमें 11 अंगसूत्र मिलाकर कुल 32 आगम मानते हैं। परम्परागत दृष्टि से श्रुतज्ञान आगमज्ञान है, किन्तु श्री कन्हैयालालजी. लोढ़ा का कथन इससे भिन्न है। उनके अनुसार, मतिज्ञान 'पर' वस्तु का ज्ञान या पदार्थ-ज्ञान है, क्योंकि वह इन्द्रियाधीन है, उनके विषय वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि हैं। पुनः, मन की अपेक्षा से भी वह बौद्धिकज्ञान है, विचारजन्य है, अतः भेदरूप है, फिर भी मतिज्ञान के समान श्रुतज्ञान को इन्द्रिय या बुद्धि की अपेक्षा नहीं है, वह शाश्वत सत्यों का बोध है। वे लिखते हैं- 'श्रुतज्ञान इन्द्रिय, मन, बुद्धि की अपेक्षा से रहित स्वतः होने वाला निज का ज्ञान है, अर्थात् स्व-स्वभाव का ज्ञान है। श्रुतज्ञान स्वाध्यायरूप है और स्वाध्याय का एक अर्थ है- 'स्व' का अध्ययन या स्वानुभूति / यदि श्रुतज्ञान का अर्थ आगम या शास्त्रज्ञान लें, तो भी वह हेय, ज्ञेय या उपादेय का बोध है, इस प्रकार वह विवेक-ज्ञान है। विवेक अन्तःस्फूर्त है। वह उचित-अनुचित का सहज बोध है। निष्कर्ष यह कि मतिज्ञान पराधीन है, जबकि श्रुतज्ञान स्वाधीन है। इस प्रकार, आदरणीय लोढ़ाजी ने आगमिक- आधारों को मान्य करके भी श्रुतज्ञान की एक नवीन दृष्टि से व्याख्या की है।