________________ जैन धर्म एवं दर्शन-463 जैन ज्ञानमीमांसा-171 में हमें व्यक्ति की प्रकृति और स्वभाव को समझना आवश्यक होता है। एक प्रबन्धक तभी सफल हो सकता है, जब वह मानव-प्रकृति की इस बहुआयामिता को समझे और व्यक्ति विशेष के सन्दर्भ में यह जाने की उसके जीवन की प्राथमिकताएं क्या हैं? प्रबन्ध और प्रशासन के क्षेत्र में एक ही चाबुक से सभी को नहीं हाँका जा सकता। जिस प्रबन्धक में प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति की जितनी अच्छी समझ होगी, वही उतना सफल प्रबन्धक होगा, इसके लिए अनेकांत-दृष्टि या सापेक्ष-दृष्टि को अपनाना आवश्यक है। प्रबन्धशास्त्र के क्षेत्र में वर्तमान में समग्र गुणवत्ता-प्रबन्धन की अवधारणा प्रमुख बनती जा रही है, किन्तु व्यक्ति अथवा संस्था की समग्र गुणवत्ता का आकलन निरपेक्ष नहीं है। गुणवत्ता के अन्तर्गत अनेक गुणों की पारस्परिक-समन्वयात्मकता आवश्यक होती है। विभिन्न गुणों का पारस्परिक-सामंजस्य में रहते हुए जो एक समग्र रूप बनता है, वह ही गुणवत्ता का आधार है। अनेक गुणों के पारस्परिक-सामंजस्य में ही गुणवत्ता निहित होती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व में विभिन्न गुण एक-दूसरे के साथ समन्वय करते हुए रहते हैं। विभिन्न गुणों की यही सामंजस्यतापूर्ण स्थिति ही गुणवत्ता का आधार है। व्यक्ति के व्यक्तित्व में विभिन्न गुण ठीक उसी प्रकार सामंजस्यपूर्वक रहते हैं, जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अवयव सामंजस्यपूर्ण स्थिति में रहते हैं। जैसे शरीर के विभिन्न अंगों का सामंजस्य टूट जाना शारीरिक-विकृति या विकलांगता का प्रतीक है, उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन के गुणों में पारस्परिक-सामंजस्य का अभाव व्यक्तित्व के विखण्डन का आधार बनता है। पारस्परिक–सामंजस्य में ही समग्र गुणवत्ता का विकास होता है। अनेकान्त-दृष्टि व्यक्तित्व के उन विभिन्न गुणों या पक्षों और उनके पारस्परिक-सामंजस्य को समझने का आधार है। व्यक्ति में वासनात्मक-पक्ष अर्थात् उसकी जैविक आवश्यकताएं और विवेकात्मक-पक्ष अर्थात् वासनाओं के संयमन की शक्ति-दोनों की अपूर्ण समझ किसी प्रबन्धक के प्रबन्धन की असफलता का कारण ही होगी। समग्र गुणवत्ता विभिन्न गुणों अथवा पक्षों और उनके पारस्परिकसामंजस्य की समझ पर ही आधारित होती है और यह समझ ही