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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-462 जैन ज्ञानमीमांसा-170 रहती है। किसी को विद्वान् या मूर्ख मानना- यह सापेक्षिक-कथन ही हो सकता है। मानव-व्यक्तित्व के सन्दर्भ में मनोविश्लेषणवादियों ने वासनात्मक-अहम् ओर आदर्शात्मक- अहम् की जो अवधारणाएं प्रस्तुत की हैं, वे यही सूचित करती हैं कि मानव-व्यक्तित्व बहुआयामी है। उसमें ऐसे अनेक परस्पर विरोधी गुणधर्म छिपे हुए हैं। प्रत्येक व्यक्ति में जहाँ एक ओर कोमलता या करुणा का भाव रहा हुआ है, वहीं दूसरी ओर उसमें आक्रोश और अहंकार भी विद्यमान है। एक ही मनुष्य के अन्दर इनफिरियारिटी-काम्पलेक्स और सुपीरियारिटी-काम्पलेक्स-दोनों ही देखे जाते हैं। कभी-कभी तो हीनत्व की भावना ही उच्चत्व की भावना में अनुस्यूत देखी जाती है। भय और साहस परस्पर विरोधी गुणधर्म हैं, किन्तु कभी-कभी भय की अवस्था में ही व्यक्ति अकल्पनीय साहस का प्रदर्शन करता है। इस प्रकार, मानव-व्यक्तित्व में वासना और विवेक, ज्ञान और अज्ञान, राग और द्वेष, कारुणिकता और आक्रोश, हीनत्व और उच्चत्व की ग्रन्थियां एक साथ देखी जाती हैं। इससे यह फलित होता है कि मानव-व्यक्तित्व भी बहुआयामी है और उसे सही प्रकार से समझने के लिए अनेकान्त की दृष्टि आवश्यक है। प्रबन्धशास्त्र और अनेकांतवाद वर्तमान युग में प्रबन्धशास्त्र एक महत्त्वपूर्ण विधा है, किन्तु यह विधा भी अनेकान्त-दृष्टि पर ही आधारित है। किस व्यक्ति से किस प्रकार कार्य लिया जाये, ताकि उसकी सम्पूर्ण योग्यता का लाभ उठाया जा सके, यह प्रबन्धशास्त्र की विशिष्ट समस्या है। प्रबन्धशास्त्र, चाहे वह वैयक्तिक हो या संस्थागत, उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष तो व्यक्ति ही होता है और प्रबन्ध और प्रशासन की सफलता इसी बात पर निर्भर होती है कि हम उस व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसके प्रेरक-तत्त्वों को किस प्रकार समझाएं। एक व्यक्ति के लिए मृदु आत्मीय–व्यवहार एक अच्छा प्रेरक हो सकता है, तो दूसरे के लिए कठोर अनुशासन की आवश्यकता हो सकती है। एक व्यक्ति के लिए आर्थिक-उपलब्धियाँ ही प्रेरक का कार्य करती हैं, तो दूसरे के लिए पद और प्रतिष्ठा महत्वपूर्ण प्रेरक-तत्त्व हो सकते हैं। प्रबन्धव्यवस्था
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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