________________ जैन धर्म एवं दर्शन-464 जैन ज्ञानमीमांसा-172. प्रबन्धशास्त्र का प्राण है। दूसरे शब्दों में कहें, तो अनेकान्त-दृष्टि के आधार पर ही सम्पूर्ण प्रबन्धशास्त्र अवस्थित है। विविध पक्षों के अस्तित्व की स्वीकृति के साथ उनके पारस्परिक-सामंजस्य की संभावना को देख पाना प्रबन्धशास्त्र की सर्वोत्कृष्टता का आधार है। समाजशास्त्र और अनेकान्तवाद समाजशास्त्र के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण समस्या व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों को सम्यक् प्रकार से समझ पाना या समझा पाना ही है। व्यक्ति के बिना समाज और समाज के बिना व्यक्ति (सभ्य व्यक्ति) का अस्तित्व संभव नहीं है। जहाँ एक ओर व्यक्तियों के आधार पर ही समाज खड़ा होता है, वहीं दूसरी ओर, व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण समाजरूपी कार्यशाला में ही सम्पन्न होता है। जो विचारधाराएं व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे से निरपेक्ष मानकर चलती हैं, वे न तो सही रूप में व्यक्ति को समझ पाती हैं और न ही समाज को। व्यक्ति और समाज-दोनों का अस्तित्व परस्पर सापेक्ष है। इस सापेक्षता को समझे बिना न तो व्यक्ति को ही समझा जा सकता है और न समाज को। . समाजशास्त्र के क्षेत्र में अनेकान्त-दृष्टि व्यक्ति और समाज के इस सापेक्षिक-संबंध को देखने का प्रयास करती है। व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं हैं- यह समझ ही 'समाजशास्त्र के सभी सिद्धान्तों का मूलभूत आधार है। सामाजिक-सुधार के जो भी कार्यक्रम हैं, उनका आवश्यक अंग व्यक्ति-सुधारना भी है। न तो सामाजिक-सुधार के बिना व्यक्ति सुधार संभव है, न व्यक्ति-सुधार के बिना सामाजिक-सुधार / वस्तुतः, व्यक्ति और समाज में आंगिकता का संबंध है। व्यक्ति में समाज और समाज में व्यक्ति इस प्रकार अनुस्यूत हैं कि उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। व्यक्ति और समाज की इस सापेक्षिकता को समझना समाजशास्त्र के लिए आवश्यक है और यह समझ अनेकान्त-दृष्टि के विकास से ही संभव है, क्योंकि वह एकत्व में अनेकत्व अथवा एकता में विभिन्नता तथा विभिन्नता में एकता का दर्शन करती है, उसके लिए एकत्व और पृथक्त्व-दोनों का ही समान महत्व है। वह यह मानकर