________________ जैन धर्म एवं दर्शन-460 जैन ज्ञानमीमांसा-168 ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरौ, जिनो वा नमस्तस्मै / / संसार–परिभ्रमण के कारण रागादि जिसके क्षय हो चुके हैं, उसे. मैं प्रणाम करता हूँ, चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णू हों, शिव हों या जिन हों। राजनीतिक क्षेत्र में अनेकांतवाद के सिद्धांत का उपयोग __ अनेकान्तवाद का सिद्धान्त न केवल दार्शनिक एवं धार्मिक, अपितु राजनीतिक-विवाद भी हल करता है। आज का राजनीतिक-जगत भी वैचारिक-संकुलता से परिपूर्ण है। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, फासीवाद, नाजीवाद आदि अनेक राजनीतिक-विचारधाराएं तथा राजतन्त्र, कुलतन्त्र, अधिनायक-तन्त्र आदि अनेकानेक शासन-प्रणालियां वर्तमान में प्रचलित हैं। मात्र इतना ही नहीं, उनमें से प्रत्येक एक-दूसरे की समाप्ति के लिए प्रयत्नशील हैं। विश्व के राष्ट्र खेमों में बंटे हुए हैं और प्रत्येक खेमें का अग्रणी राष्ट्र अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने हेतु दूसरे के विनाश में तत्पर है। मुख्य बात यह है कि आज का राजनीतिक-संघर्ष मात्र आर्थिक हितों का संघर्ष न होकर वैचारिकता का भी संघर्ष है। आज. अमेरिका, चीन और रूस अपनी वैचारिक-प्रभुसत्ता के प्रभाव को बढ़ाने के लिए ही प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं। एक-दूसरे को नाम–शेष करने की उनकी यह महत्त्वाकांक्षा कहीं मानव-जाति को ही नाम-शेष न कर दे। __आज के राजनीतिक जीवन में स्याद्वाद के दो व्यावहारिक- फलित वैचारिक सहिष्णुता और समन्वय अत्यन्त उपादेय हैं। मानव- जाति ने राजनीतिक-जगत् में राजतन्त्र से प्रजातन्त्र तक की जो लम्बी यात्रा तय की है, उसकी सार्थकता स्याद्वाद-दृष्टि को अपनाने में ही है। विरोधी पक्ष द्वारा की जाने वाली आलोचना के प्रति सहिष्णु होकर उसके द्वारा अपने दोषों को समझना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना आज के राजनीतिक-जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। विपक्ष की धारणाओं में भी सत्यता हो सकती है और सबल विरोधी दल की उपस्थिति से हमें अपने दोषों के निराकरण का अच्छा अवसर मिलता है, इस विचार-दृष्टि और सहिष्णु-भावना में ही प्रजातन्त्र का भविष्य उज्ज्वल रह सकला है। राजनीतिक क्षेत्र में संसदीय प्रजातन्त्र वस्तुतः राजनीतिक-स्याद्वाद है। इस परम्परा में बहुमत दल द्वारा गठित सरकार अल्पमत दल को अपने