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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-459 जैन ज्ञानमीमांसा-167 धार्मिक-असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये। आश्चर्य तो यह है कि इस दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्त-प्लावन को धर्म का बाना पहनाया गया। शान्ति-प्रदाता धर्म ही अशांति का कारण बना। आज के वैज्ञानिक युग में धार्मिक-अनास्था का मुख्य कारण उपरोक्त भी हैं। यद्यपि विभिन्न मतों, पंथों और वादों में बाह्य-भिन्नता परिलक्षित होती है, किन्तु यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो, तो उसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते हैं। . अनेकांत-विचारदष्टि विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों की समाप्ति द्वारा एकता का प्रयास नहीं करती है, क्योंकि वैयक्तिक रुचि-भेद एवं क्षमता-भेद तथा देशकालगत भिन्नताओं के होते हुए विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों की उपस्थिति अपरिहार्य है। एक धर्म या एक सम्प्रदाय का नारा असंगत एवं अव्यावहारिक नहीं, अपित अशांति और संघर्ष का कारण भी है। अनेकांत विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों की समाप्ति का प्रयास न होकर उन्हें एक व्यापक पूर्णता में सुसंगत रूप से संयोजित करने का प्रयास हो सकता है, लेकिन इसके लिए प्राथमिक आवश्यकता है- धार्मिक सहिष्णुता और सर्वधर्म समभाव की। अनेकांत के समर्थक जैनाचार्यों ने इसी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है। आचार्य हरिभद्र की धार्मिक सहिष्णुता तो सर्वविदित ही है। अपने ग्रन्थ शास्त्रवार्ता-समुच्चय में उन्होंने बुद्ध के अनात्मवाद, न्यायदर्शन के ईश्वर-कर्तृत्ववाद और वेदान्त के सर्वात्मवाद. (ब्रह्मवाद) में भी संगति दिखाने का प्रयास किया। अपने ग्रन्थ लोकतत्त्व-संग्रह में आचार्य हरिभद्र लिखते हैं - ... पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु / युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्य परिग्रहः / / ___ मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों के प्रति द्वेष है। जो भी वचन तर्कसंगत हो, उसे ग्रहण करना चाहिए। - इसी प्रकार, आचार्य हेमचन्द्र ने शिव-प्रतिमा को प्रणाम करते समय सर्वदेव समभाव का परिचय देते हुए कहा था - भवबीजांकुरजनना, रागद्या क्षयमुपागता यस्य /
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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