SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-303 जैन ज्ञानमीमांसा -11 अन्तर्गत आता है। सामान्यतया, श्रुतज्ञान का अर्थ सुनकर- ऐसा होता है और सुनने की यह प्रक्रिया शब्दों के उच्चारणपूर्वक होती है और इसलिए कुछ लोगों ने यह मान लिया कि श्रुतज्ञान शाब्दिक या भाषायी-ज्ञान है, किन्तु जैन आगमों में एकेन्द्रिय जीवों में भी श्रुतज्ञान की सम्भावना मानी है, उसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय जीव भी स्पर्श-इन्द्रिय के माध्यम से जो संकेत उन्हें मिलते हैं, उनसे अर्थबोध ग्रहण कर लेते हैं। अतः, श्रृतज्ञान में शब्द या भाषा का उपयोग होता है, फिर भी वह आवश्यक नहीं होता। श्रुतज्ञान में मात्र इतना आवश्यक है कि इन्द्रियों के माध्यम से हमें जो संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं, उनके अर्थ का बोध हमें हो, उदाहरण के रूप में स्काउट्स झण्डी या सीटी आदि के माध्यम से अर्थबोध प्राप्त करते हैं। यद्यपि सीटी ध्वनि-रूप है, शब्दरूप नहीं है, इसलिए जैन आचार्यों ने भाषा को भी दो प्रकार का माना है, शब्द या ध्वनि-रूप भाषा और संकेत-ग्रहणरूप भाषा / व्यवहार में हम शब्दों का प्रयोग करते हैं और उन शब्दों से अर्थबोध करते हैं, किन्तु इन्द्रिय-संकेतों में, चाहे वे शब्दरूप हो या ना हों, उनसे अर्थबोध करने की जो सामर्थ्य रही है, वही तो श्रुतज्ञान है। अतः, श्रुतज्ञान शब्दरूप भी होता है और अर्थरूप भी होता है। - श्रुतज्ञान का एक सामान्य अर्थ होता है- जो ज्ञान सुनकर प्राप्त होता है, वह ज्ञान, किन्तु मतिज्ञान में भी श्रोतेन्द्रिय से सुनकर ज्ञान प्राप्त होता है, फिर भी दोनों में अन्तर है। सुनकर जो अर्थबोध होता है, वह श्रुतज्ञान है, जबकि मात्र ध्वनितरंगों का श्रवणमात्र मतिज्ञान है, जैसेकिसी तमिल भाषा के अज्ञानी व्यक्ति के सम्मुख कोई तमिल भाषा में गाना गाए, तो वह ध्वनियों को सुनता तो है, वे ध्वनियाँ उसे अनुकूल या प्रतिकूल भी लगती हैं; किन्तु यह ध्वनिसंवेदन मात्र मतिज्ञान है, परन्तु जब कोई तमिल भाषा का ज्ञाता उन ध्वनितरंगों का संवेदन कर अर्थात् उन्हें सुनकर जो अर्थबोध करता है, अर्थात् क्या कहा जा रहा है और उसका अर्थ क्या है- यह जानता है, तो वह अर्थबोध श्रुतज्ञान होता है। श्रुतज्ञान मात्र ध्वनि-संवेदनरूप न होकर अर्थबोध-रूप होता है, अतः श्रुतज्ञान भाषिक-ज्ञान . है और भाषिक-ज्ञान के रूप में यह अर्थसंकेत-ग्रहण-रूप है, अतः अन्य इन्द्रियों द्वारा गृहीत संवेदनों से भी जब अर्थबोध प्राप्त होता है, तो वे भी
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy