________________ जैन धर्म एवं दर्शन-302 जैन ज्ञानमीमांसा-10 विचाररूप मतिज्ञान श्रुतनिश्रितमतिज्ञान कहलाता है, क्योंकि विकल्प शब्दों के बिना नहीं बनते हैं। जैन-दार्शनिकों ने मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का संबंध बताते हुए एंकागी दृष्टिकोण नही अपनाया है। एक ओर, वे यह मानते हैं कि ऐन्द्रिक-संवेदनों से जो ज्ञान होता है, उसमें मतिज्ञान प्रथम और श्रुतज्ञान बाद में होता है, जबकि इसके विपरीत, मनोविकल्पों का जो बोध होता है, उसमें श्रुतज्ञान प्रथम और मतिज्ञान बाद में होता है। यही कारण है कि जैन-आचार्यों ने यह माना है कि जहाँ मतिज्ञान है, वहाँ श्रुतज्ञान है और जहाँ श्रुतज्ञान है, वहाँ मतिज्ञान है। ___ मतिज्ञान का एक पर्यायवाची शब्द 'अभिनिबोध' या आभिनिबोधिकज्ञान भी है, इसका अर्थ होता है - एक समग्र और सम्बन्धित अर्थबोध / अतः, श्रुतज्ञान से भिन्न मतिज्ञान और मतिज्ञान से भिन्न श्रुतज्ञान सम्भव नहीं है। जहाँ भी वस्तु के स्वरूप के संबंध में, यह ऐसी है और ऐसी नहीं है- इस प्रकार का जो बोध होता है, उसमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान एक-दूसरे में पूरी तरह समाहित होते हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को हम वैचारिक-स्तर पर अलग-अलग कर सकते हैं, लेकिन सत्ता के स्तर पर तो वे अभिन्न ही हैं, अर्थात् (They are distinguisable but not spreatable) / वे पृथक-पृथक् रूप से जाने जा सकते हैं, किन्तु पृथक् किये नहीं जा सकते हैं। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने यह माना कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सदैव साथ-साथ रहते हैं और एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों में साथ-साथ पाये जाते हैं। . श्रुतज्ञान का स्वरूप __ श्रुतज्ञान शाब्दिक-ज्ञान है। शब्दों के माध्यम से हमें जो अर्थबोध होता है, उसको सामान्यतया श्रुतज्ञान कहते हैं। कुछ लोगों ने इस आधार पर इसे भाषायीज्ञान भी कहा है। वस्तुतः, ऐन्द्रिक एवं मानसिक-संवेदनों से जो भी अर्थबोध हम ग्रहण करते हैं, वह चाहे शब्द या अक्षर-रूप हो या न हो, उसे श्रुतज्ञान ही कहा जाता है, इसलिए अनुभूतिजन्य संकेतों से जो अर्थबोध होता है, वह भी श्रुतज्ञान के अन्तर्गत आता है, अतः श्रुतज्ञान केवल भाषायी ज्ञान नही है। शब्द के उच्चारण या लेखन के बिना भी संकेतों के आधार पर जो अर्थबोध किया जाता है, वह भी श्रुतज्ञान के