________________ जैन धर्म एवं दर्शन-301 जैन ज्ञानमीमांसा-9 होने के कारण छ: प्रकार का होता है। व्यञ्जनावग्रह के चार एवं अर्थावग्रह के छह- इस प्रकार अवग्रह के दस, ईहा के छह, अवाय के छह, धारणा के छह, कुल 28 भेद होते हैं। इनका उपर्युक्त 12 प्रकारों से गुणा करने पर मतिज्ञान के कुल 336 भेद माने गये हैं। __एक अन्य अपेक्षा से मतिज्ञान के अन्य दो भेद भी हैं- 1. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान और 2. अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान। भाषायी ज्ञान के आधार पर मतिज्ञान की जो अभिव्यक्ति होती है, वह श्रुत-निश्रित मतिज्ञान है, किन्तु अन्तःप्रज्ञा या विवेक- बुद्धि के द्वारा जो मतिज्ञान होता है, वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान है। श्रुतनिश्रित मतिज्ञान को बौद्धिक-ज्ञान भी कहा गया है, इसके चार भेद हैं- 1. औत्पातिक-बुद्धि (तात्कालिक-बुद्धि) 2. वैनयिकी-बुद्धि (गुरू-परम्परा से प्राप्त बुद्धि) 3. कर्मजा-बुद्धि (शिल्पज्ञान की शक्ति) और 4. परिणामिकी-बुद्धि (किसी कार्य को करते हुए देखकर उसे सीख जाने की शक्ति)। इन चारों को मिलाने पर मतिज्ञान के 336 + 4 = 340 कुल 340 भेद भी होते हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का सम्बन्ध _____ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान एक-दूसरे से अभिन्न हैं। जहाँ तक इन्द्रिय संवेदनाजन्य मतिज्ञान का प्रश्न है, वह ज्ञान श्रुतज्ञान का आधार बनता है। इन्द्रिय संवेदनाओं का अर्थबोध श्रुतज्ञान के अन्तर्गत आता है, अतः ऐन्द्रिक- संवेदनाओं के बिना श्रुतज्ञान नहीं होता। ऐन्द्रिक-संवेदनाओं से हम जो अर्थ का बोध करते हैं, वही श्रुतज्ञान कहा जाता है। अतः, तत्त्वार्थसूत्र का यह कथन सत्य है कि मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है, किन्तु यह भी एकान्ततः सत्य नहीं है। जिन प्राणियों को मन है, अर्थात जिनमें मानसिक-स्तर पर संकल्प-विकल्प चलते हैं, वे सभी विकल्प शब्दों पर आधारित होने से मतिज्ञान के लिए भी श्रुतज्ञान आवश्यक होता है। क्योंकि बिना शाब्दिक अर्थबोध के विचार या विकल्प संभव नहीं होते, इसलिए जैन-आचार्यों ने इस दृष्टि से मतिज्ञान के भी दो भेद किए हैं1. श्रुतनिश्रित मतिज्ञान और 2. अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान / मात्र ऐन्द्रिक-संवेदनों से जो बोध प्राप्त होता है, वह अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान है, जबकि चित्त में जो विकल्प उत्पन्न होते हैं, वे विकल्प शब्दरूप होने से विकल्प या