________________ * जैन धर्म एवं दर्शन-300 ... जैन ज्ञानमीमांसा-8 ज्ञान को भी प्रत्यक्ष ज्ञान ही मान रही थीं। मतिज्ञान के विषय मतिज्ञान के विषय पदार्थ अथवा मनोविकल्प ही हैं। पदार्थ 'स्व' से भिन्न है, अतः 'पर' है। मनोविकल्प हमारे होकर भी हम उनके द्रष्टा होते हैं, अतः वे हमारे ज्ञान के विषय होते हैं। हम ज्ञाता होते हैं और वे ज्ञेय होते हैं, ज्ञेय होने से वे हमसे इतर या भिन्न होते हैं, अतः मतिज्ञान भेद-दृष्टिवाला होता है। मतिज्ञान यद्यपि सीमित ज्ञान है, फिर भी उसका विषय समस्त पदार्थ (द्रव्य), समस्त क्षेत्र, सभी काल और समस्त अवस्थाएँ (भाव) होते हैं। इस प्रकार, मतिज्ञान के विषयों के निम्न बारह प्रकार बनते हैं - 1. एक (अल्प), 2. अनेक (बहु), 3. एक प्रकार के (एकविध), 4. अनेक प्रकार के (अनेकविध), 5. शीघ्रग्राही (क्षिप्र), 6. कठिनता या देरी से ग्राही (अक्षिप्र), 7. निश्रित (अन्य के आश्रित), 8. अनिश्रित (अन्य किसी पर आश्रित नहीं), 9. असंदिग्ध (स्पष्ट), 10. संदिग्ध (अस्पष्ट), 11. ध्रुवग्राही (शाश्वत मूल्य वाले) और 12. अध्रुवग्राही (सामयिक मूल्य वाले)। मतिज्ञान के भेद अपने विषय की अपेक्षा से यह मतिज्ञान एक वस्तु का, अनेक वस्तुओं का, एक प्रकार की वस्तुओं का, अनेक प्रकार की अनेक वस्तुओं का हो सकता है। इसी प्रकार, ज्ञान के स्वरूप की अपेक्षा से शीघ्रग्राही, संकेत से अर्थ का ग्राही, साक्षात् अर्थ का ग्राही, संदिग्ध, असंदिग्ध तथा स्थायी या अस्थायी रूप होता है। इस प्रकार, मतिज्ञान के उपर्युक्त बारह भेद भी होते हैं। अवग्रह के मूलतः दो भेद हैं - व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह / व्यञ्जनावग्रह अव्यक्त अनुभूति है, यह निम्नानुसार चार प्रकार का होता है - 1. घ्राणज, 2. श्रोत्रज, 3. रसनज, 4. स्पर्शज / चक्षु और मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं होता है, इनसे सीधा अर्थबोध या अर्थावग्रह होता है। चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों, अर्थात् श्रौतेन्द्रिय (कान), घ्राणेन्द्रिय (नासिका), रसनेन्द्रिय (जीभ) और स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) से होने के कारण यह चार प्रकार का है, जबकि अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों और मन से