________________ जैन धर्म एवं दर्शन-399 जैन ज्ञानमीमांसा -7 सामान्य अवबोध होता है, उसे 'दर्शन' (ऐन्द्रिकसंवेदन) कहते हैं, वह बोध सामान्य रूप होता है। उस बोध में मन का योगदान होने पर वस्तु का उसकी विशेषताओं सहित जो निश्चित ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान कहलाता है। मतिज्ञान की इस प्रक्रिया के चार स्तर होते हैं, जिन्हें क्रमश:- 1. अवग्रह, 2. ईहा, 3. अवाय (अपाय) और 4. धारणा कहा जाता है। प्रथम, इन्द्रिय का अपने विषय से सम्पर्क होता है, किन्तु उस समय जो अस्पष्ट अवबोध होता है, उसे व्यंजनावग्रह कहते हैं, जैसे- गहरी निद्रा में किसी के द्वारा एक-दो बार पुकारे जाने पर श्रवणेन्द्रिय का अपने विषय 'शब्द' से सम्पर्क तो होता है, किन्तु उसका स्पष्ट अवबोध नहीं होता है। उसके पश्चात्, जब चेतना में यह बोध होता है कि कोई मुझे पुकार रहा है, तब उसे अर्थावग्रह कहते हैं। उसके पश्चात, जब चेतना उस बोध को विशेष रूप से जानने में प्रवृत्त होती है, तो उस प्रक्रिया को ईहा कहते हैं, जैसे- यह किसकी आवाज है ? फिर भी ईहा संशय की अवस्था नहीं है, यह बोध की निर्णयाभिमुख अवस्था है, जैसे - ये किसी स्त्री के शब्द होना चाहिए, क्योंकि ये मधुर हैं। उसके पश्चात्, जो निर्णयात्मक निश्चित बोध होता है, उसे अवाय या अपाय कहा जाता है। जब यह निश्चित बोध स्मृति में सुरक्षित किया जाता है, तो उसे धारणा कहते हैं। इस प्रकार, मतिज्ञान की प्रक्रिया अवग्रह से प्रारम्भ होकर धारणा में पूर्ण होती है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि तत्त्वार्थसूत्र आदि की प्राचीन परम्परा में मतिज्ञान को परोक्ष ज्ञान ही माना गया था, क्योंकि इसमें आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह इन्द्रियों एवं मन के माध्यम से ही होता है। जो ज्ञान इंद्रियों या मन के द्वारा होता है, उसे परोक्षज्ञान ही कहा गया, क्योंकि यह पराश्रित है। इस प्रकार के ज्ञान में हम वस्तु के निजस्वरूप न जानकर इन्द्रिय या मन उसे जिस प्रकार दिखाते हैं, वैसा देखते हैं। दूसरे यह कि मतिज्ञान इन्द्रिय और मन के माध्यम से पदार्थ या मनोविकल्पों का बोध करता है- ये सभी 'स्व' से भिन्न हैं, परापेक्षी हैं, अतः मतिज्ञान परोक्ष ज्ञान ही है, किन्तु लगभग पांचवीं शती से जैनाचार्यों ने इस ज्ञान को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है, क्योकि अन्य दार्शनिक-परम्पराएं मन और इन्द्रियजन्य