________________ जैन धर्म एवं दर्शन-298 जैन ज्ञानमीमांसा-6 प्रज्ञापनासूत्र में भी पंचज्ञानों की चर्चा मिलती है। तत्त्वार्थसूत्र भी पंच ज्ञानों की चर्चा प्रमाण-चर्चा की अपेक्षा विस्तार से करता है, जबकि प्रमाणचर्चा में पांचों ज्ञानों को प्रमाण कहकर अपनी बात को समाप्त कर देता है। यहाँ यह प्रश्न भी उठता है कि ज्ञान या प्रमाण क्या है ? इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि जो बोध (आत्म-संवेदन) संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान) और अनध्यवसाय रूप हो और आत्मसजगता से रहित हो, वह अज्ञान है और अप्रमाण भी है। इसके विपरीत जो बोध है, वही ज्ञान है, इसे ही अभिनिबोधिक-ज्ञान भी कहते हैं। पंचज्ञानवाद जैन-परम्परा में ज्ञान पांच माने गये हैं- 1. मतिज्ञान, 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधिज्ञान, 4. मनःपर्यवज्ञान और 5. केवलज्ञान। इन पाँच ज्ञानों में . मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान - ये तीन ज्ञान मिथ्यादृष्टि व्यक्तियों की अपेक्षा से अज्ञानरूप भी माने गये हैं। जैन-कर्मसिद्धान्त में आत्मा के ज्ञानोपयोग को भी आठ प्रकार का माना गया है - 1. मति-ज्ञान, 2. मति–अज्ञान, 3. श्रुत-ज्ञान, 4. श्रुत-अज्ञान, 5. अवधिज्ञान, 6. विभंगज्ञान, 7. मनःपर्यवज्ञान और 8. केवलज्ञान / मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान अज्ञानरूप नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वे साक्षात् ज्ञान हैं। अवधिज्ञान भी यद्यपि साक्षात् ज्ञान है, फिर भी विकृत आत्मा अर्थात् विभावदशायुक्त नारकी जीवों या तिर्यच आत्मा में इसकी सम्भावना होने से वह अज्ञानरूप भी हो सकता है। प्रथमतया, मनःपर्यव केवल सम्यकदृष्टि अप्रमत्त मुनियों को होता है, वे मिथ्यात्व से युक्त नहीं होते हैं, अतः मनःपर्यवज्ञान विकृत या अज्ञानरूप नहीं होता है। दूसरे, यदि मनःपर्यवज्ञान पर स्व-चेतना की अपेक्षा से विचार करें, तो मन की पर्यायें तो चेतना में यथावत् ही अनुभूत होती हैं, अतः वे अज्ञानरूप नहीं हो सकती हैं। मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान भी मन और इन्द्रियों के आश्रित नहीं हैं, अतः वे भी विकृत नहीं होते हैं। (1) मतिज्ञान _ मन और इंद्रियों के माध्यम से वस्तु का जो विशेष-ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। प्रथमतया, इन्द्रियों के माध्यम से बाह्यार्थों का जो