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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-454 जैन ज्ञानमीमांसा-162 वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो लोगों को आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठकर सही दिशा-निर्देश दे सके। भगवान बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए विवाद-पराड्.मुखता को अपनाया। सुत्तनिपात में वे कहते हैं कि 'मैं विवाद के दो फल बताता हूँ। एक तो वह अपूर्ण व एकांगी होता है और दूसरे, कलह एवं अशान्ति का कारण होता है। अतः, निर्वाण को निर्विवाद भूमि समझने वाला साधक विवाद में न पड़े (सुत्तनिपात 51-21) / बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित सभी परविरोधी दार्शनिक-दृष्टिकोणों को सदोष बताया और इस प्रकार अपने को किसी भी दार्शनिक-मान्यता के साथ नहीं बांधा / वे कहते हैं कि पंडित किसी दृष्टि या वाद में नहीं पड़ता (सुत्तनिपात- 51-3) / बुद्ध की दृष्टि में दार्शनिक-वादविवाद निर्वाण-मार्ग के साधक के कार्य नहीं हैं (सुत्तनिपात-46 -8-9) / अनासक्त, मुक्त पुरुष के पास विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। इसी प्रकार, भगवान् महावीर ने भी आग्रह को साधना का सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने कहा कि आग्रह, मतान्धता या एकांगी-दृष्टि उचित नहीं है। जो व्यक्ति अपने मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं, वे संसार-चक्र में घूमते रहते हैं (सूत्रकृतांग 1/1/2-23) / इस प्रकार, भगवान् महावीर व बुद्ध-दोनों ही उस युग की आग्रह-वृत्ति एवं मतान्धता से जनमानस को मुक्त करना चाहते थे, फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा अन्तर था। जहाँ बुद्ध इन विवादों से बचने की सलाह दे रहे थे, वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी विधायक-दृष्टि प्रस्तुत कर रहे थे, जिसका परिणाम स्याद्वाद है। स्याद्वाद विविध दार्शनिक-एकान्तवादों में समन्वय करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि में अनित्यवाद-क्षणिकवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, भेदभाव-अभेदभाव आदि सभी वस्तु-स्वरूप के आंशिक-पक्षों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कोई भी असत्य तो नहीं है, किन्तु पूर्ण सत्य भी नहीं है। यदि इनको कोई असत्य बनाता है, तो वह आंशिक-सत्य को पूर्ण सत्य मान लेने का उनका आग्रह ही है। स्याद्वाद अपेक्षा–भेद से इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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