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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-455 जैन ज्ञानमीमांसा-163 तभी असत्य बन जाता है, जबकि हम आग्रही- दृष्टि से उसे देखते हैं। यदि हम हमारी दृष्टि को या अपने को आग्रह से ऊपर उठाकर देखें, तो हमें सत्य का दर्शन हो सकता है। सत्य का सच्चा प्रकाश केवल अनाग्रही को ही मिल सकता है। महावीर के प्रथम शिष्य गौतम का जीवन स्वयं इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। गौतम के केवलज्ञान में आखिर कौनसा तत्त्व बाधक बन रहा था? महावीर ने स्वयं इसका समाधान करते हुए गौतम से कहा था- हे गौतम! तेरा मेरे प्रति जो ममत्व है, यही तेरे केवलज्ञान (सत्य दर्शन) का बाधक है। महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि सत्य का सम्पूर्ण दर्शन आग्रह के घेरे में रहकर नहीं किया जा सकता। आग्रह-बुद्धि या दृष्टिराग सत्य को असत्य बना देता है। सत्य का प्रकटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है, उपाध्याय यशोविजयजी स्याद्वाद की इसी अनाग्रही एवं समन्वयात्मक-दृष्टि को स्पष्ट करते हुए अध्यात्मोपनिषद् में लिखते हैं यस्य सर्वत्र समता नयेषु, तनयेष्विव / तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी / 161 / / तेन स्याद्वाद्वमालंब्य सर्वदर्शन तुल्यताम् / मोक्षोद्देशाविशेषेण यः पश्यति सः शास्त्रवित् / / 70 || माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिद्धयति / स एव धर्मवादः स्यादन्यद्वालिशवल्गनम् ||71 || माध्यस्थ सहितं ह्ये कपद्ज्ञानमपि प्रमा / शास्त्रकोटितथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना / / 73 / / सच्चा अनेकान्तवादी किसी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य-दृष्टि से देखता है, जैसे कोई पिता अपने पुत्र को, क्योंकि अनेकान्तवादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती। सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी तो वही है, जो स्याद्वाद का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है। वास्तव में, माध्यस्थ-भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है। माध्यस्थ-भाव रहने पर शास्त्र के पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा है, क्योंकि जहाँ आग्रह-बुद्धि होती है, वहाँ विपक्ष में निहित सत्य का
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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