________________ जैन धर्म एवं दर्शन-439 जैन ज्ञानमीमांसा-147 तो बनाई जा सकती हैं, किन्तु अनन्तभंगी नहीं। श्वेताम्बर-आगम भगवतीसूत्र में षट्प्रदेशी-स्कन्ध के संबंध में जो 23 भंगों की योजना है, वह वचन-भेद कृत संख्याओं के कारण है। उसमें भी मूल भंग सात ही हैं। पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि प्राचीन दिगम्बर-आगम-ग्रन्थों में और शेष परवर्ती-साहित्य में सप्तभंग ही मान्य रहे हैं, अतः विद्वानों को इन भ्रमों का निवारण कर लेना चाहिये कि ऐसे संयोगों से सप्तभंगी ही क्यों, अनन्तभंगी भी हो सकती हैं, अथवा आगमों में सात भंग नहीं हैं, अथवा सप्तभंगी भी एक परवर्ती विकास है। सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक सापेक्षिक-निर्णय प्रस्तुत करता है। सप्तभंगी में स्यात्, अस्ति आदि जो सात भंग हैं, वे कथन के तार्किकआहार-मात्र हैं। उसमें स्यात् शब्द कथन की सापेक्षिकता का सूचक है और अस्ति एवं नास्ति कथन के विधानात्मक और निषेधात्मक होने के सूचक हैं। कुछ जैन-विद्वान् अस्ति को सत्ता की भावात्मकता का और नास्ति को अभावात्मकता का सूचक मानते हैं, किन्तु यह दृष्टिकोण जैनदर्शन को मान्य नहीं हो सकता, उदाहरण के लिए- जैनदर्शन में आत्मा भावरूप है, वह अभावरूप नहीं हो सकता है। अतः, हमें यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति अपने-आप में कोई कथन नहीं हैं, अपितु कथन के तार्किक-आकार हैं, वे कथन के प्रारूप हैं। उन प्रारूपों के लिए अपेक्षा तथा उददेश्य और विधेय-पदों का उल्लेख आवश्यक है, जैसे- स्याद् अस्ति भंग का ठोस उदाहरण होगाद्रव्य की अपेक्षा आत्मा नित्य है। यदि हम इसमें अपेक्षा (द्रव्यता) और विधेय (नित्यता) का उल्लेख नहीं करें और कहें कि स्यात् आत्मा है, तो हमास कथन भ्रमपूर्ण होगा। अपेक्षा और विधेय-पद के उल्लेख के अभाव में सप्तभंगी के आधार पर किये गये कथन अनेक भ्रान्तियों को जन्म देते हैं, जिसका विशेष विवेचन हमने द्वितीय भंग की चर्चा के प्रसंग में किया ___ आधुनिक तर्कशास्त्र की दृष्टि से सप्तभंगी का प्रत्येक भंग एक