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________________ जैनधर्म एवं दर्शन-438 जैन ज्ञानमीमांसा-146 सापेक्षिक-कथन-पद्धति की आवश्यकता के मूलतः चार कारण हैं 1. वस्तुतत्त्व की अनन्तधर्मात्मकता, 2. मानवीय-ज्ञान-प्राप्ति के साधनों की सीमितता, 3. मानवीय-ज्ञान की अपूर्णता एवं सापेक्षता, तथा 4. भाषा के अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की सीमितता एवं सापेक्षता। अनेकांतवाद का भाषिक-पक्ष : सप्तभंगी सप्तभंगी स्याद्वाद की भाषायी-अभिव्यक्ति के सामान्य विकल्पों को प्रस्तुत करती है। हमारी भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई है। है और 'नहीं है हमारे कथनों के दो प्रारूप हैं, किन्तु कभी-कभी हम अपनी बात की स्पष्टता 'है (विधि) और 'नहीं है (निषेध) की भाषा में प्रस्तुत करने में असमर्थ होते हैं, अर्थात् सीमित शब्दावली की यह भाषा हमारी अनुभूति को करने में असमर्थ होती हैं। ऐसी स्थिति में हम एक तीसरे विकल्प 'अवाच्य' या अवक्तव्य' का सहारा लेते हैं, अर्थात शब्दों के माध्यम से है' और 'नहीं है की भाषायी. सीमा में बाँधकर उसे कहा नहीं जा सकता है। इस प्रकार, विधि, निषेध और अवक्तध्यता से जो सात प्रकार का वचन-विन्यास बनता है, उसे सप्तभंगी कहा जाता है। सप्तभंगी में स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति और स्यात अवक्तव्य- ये तीन असंयोगी मौलिक भंग हैं, शेष चार भंग इन तीनों के संयोग से बनते हैं। उनमें स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात अस्ति-अवक्तव्य और स्यात नास्ति- अवक्तव्य- ये तीन द्विसंयोगी और अन्तिम, स्यात्- अस्ति- नास्ति- अवक्तव्य- यह त्रिसंयोगी भंग है। निर्णयों की भाषायी-अभिव्यक्ति विधि, निषेध और अवक्तव्य- इन तीन ही रूपों में होती है, अतः उससे तीन ही मौलिक भंग बनते हैं और इन तीन मौलिक भंगों में से गणित-शास्त्र के संयोग-नियम के आधार पर सात भंग ही बनते हैं, न कम, न अधिक। अष्टसहस्री टीका में आचार्य विद्यानन्दि ने इसीलिए यह कहा है कि जिज्ञासा और संशय और उनके समाधान सप्त प्रकार के ही हो सकते हैं। अतः, जैन-आचार्यों की सप्ताभरि की यद रादशा निर्सत नही है पस्तुतत्त्व के अनन्त धमों में से प्रत्येक को लेकर एक-एक सप्तभंगी और इस प्रकार अनन्त सप्तभंगियाँ
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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