________________ जैन धर्म एवं दर्शन-433 जैन ज्ञानमीमांसा -141 अभोक्तृत्व दोनों स्वीकृत हैं, अथवा प्रकृति में सांसारिक-पुरुषों की अपेक्षा से प्रवृत्यात्मकता व पुरुष की अपेक्षा से निवृत्यात्मकता-दोनों ही स्वभाव स्वीकार किए गये हैं। मीमांसा-दर्शन में भी द्रव्य की नित्यता व आकृति की अनित्यता उसी प्रकार स्वीकार की गयी, जिस प्रकार वह पातंजल-दर्शन में स्वीकार की गयी। सर्वप्रथम मीमांसा-दर्शन में ज्ञाता, ज्ञेय व ज्ञानरूपता वाले त्रिविध ज्ञान को ज्ञान कहा गया। दूसरे शब्दों में, ज्ञान के त्रयात्मक होने पर भी उसे एकात्मक माना। ज्ञान में ज्ञाता स्वयं को; ज्ञान के विषय को और अपने ज्ञान- तीनों को जानता है। ज्ञान में यह त्रयात्मकता रही है, फिर भी उसे ज्ञान ही कहा जाता है। यह ज्ञान की बहुआयामिता का ही एक रूप है। पुनः, मीमांसा-दर्शन में कुमारिल ने स्वयं ही सामान्य व विशेष में कथंचित्-तादात्म्य एवं कथंचित्-भेद धर्म-धर्मी की अपेक्षा से भेदाभेद माना है। मीमांसाश्लोकवार्तिक में वस्तु की उत्पाद, व्यय व ध्रौव्यता को इसी प्रकार प्रतिपादित किया गया है, जिस प्रकार से उसे जैन-परम्परा में प्रतिपादित किया गया है। - जब स्वर्णकलश को तोड़कर कुण्डल बनाया जाता है, तो जिसे कलश की अपेक्षा है, उसे दुःख व जिसे कुण्डल की अपेक्षा है, उसे सुख होता है, किन्तु जिसे स्वर्ण की अपेक्षा है, उसे माध्यस्थभाव है। वस्तु की यह त्रयात्मकता जैन व मीमांसा- दोनों दर्शनों में स्वीकृत है। चाहे शांकर-वेदान्त अपने अद्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परमसत्ता को अपरिणामी मानता हो, किन्तु उसे भी अन्त में परमार्थ और व्यवहार- इन दो दृष्टियों को स्वीकार करके परोक्ष रूप से अनेकान्त-दृष्टि को स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि उसके अभाव में इस परिवर्तनशील जगत् की व्याख्या सम्भव नहीं थी। इस प्रकार, सभी भारतीय-दर्शन किसी-न-किसी रूप में अनेकांत-शैली को स्वीकार करते हैं। जैन-परम्परा में अनेकान्तवाद का विकास जैनदर्शन में अनेकान्त-दृष्टि की उपस्थिति अति प्राचीन है। जैन-साहित्य में आचारांग अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है। इसमें भी हमें 'ज़े