________________ जैन धर्म एवं दर्शन-432 जैन ज्ञानमीमांसा-140 होने पर दूसरी घटाकृति तो रहती है। हम यह भी कह सकते हैं कि आकृति चाहे बाह्य रूप में नष्ट हुई हो, किन्तु स्रष्टा के चेतना की आकृति तो बनी रहती है। कुम्हार द्वारा बनाया घड़ा टूट जाता है, किन्तु कुम्हार के मनस में जो घटाकृति है, वह बनी रहती है। महाभाष्यकार ने सत्ता को नित्य मानकर भी उसमें कार्य-रूप में उत्पत्ति व विनाश को स्वीकार किया है। यह इस बात का परिचायक है कि पतंजलि के दर्शन में सत् की परिणामी-नित्यता की अवधारणा उसी रूप में है, जिस प्रकार जैनदर्शन में ___ भारतीय-दर्शनों में सांख्य-दर्शन भी एक प्राचीनतम दर्शन है। सांख्य-दर्शन प्रकृतिपरिणामवादी है। वह पुरुष को कूटस्थनित्य मानता है, जबकि प्रकृति को परिवर्तनशील / उसके द्वैतवाद का एक तत्त्व परिवर्तनशील है, तो दूसरा अपरिवर्तनशील है, लेकिन यह अवधारणा मूलतः उस पुरुष . के संदर्भ में ही घटित होती है, जो अपने को प्रकृति से पृथक् जान चुका है। शेष चेतन-सत्ताएं, जो प्रकृति के साथ अपने ममत्व को बनाए हुई हैं, वे तो किसी-न-किसी रूप में परिवर्तनशील हैं ही। यही कारण है कि सांख्य अपने सत्कार्यवाद में परिणामवाद को स्वीकार करने को बाध्य हुआ। सांख्य दर्शन के व्यावहारिक या साधनात्मक-पक्ष योगदर्शन में भी स्पष्ट रूप से वस्तु की विविध धर्मात्मकता स्वीकार की गयी है, जैसे-एक ही स्त्री अपेक्षा-भेद से पत्नी, माता, पुत्री, बहन आदि कही जाती है। दूसरे शब्दों में, एक ही धर्मी अपेक्षा–भेद से अनेक धर्म वाला कहा जाता है। द्रव्य की नित्यता व पर्यायों की अनित्यता भी सांख्य एवं योग-दर्शन में भी उसी रूप में स्वीकृत है, जिस रूप में वह जैन-दर्शन में। यह इस तथ्य का सूचक है कि सत्ता की बहुआयामिता के कारण उसकी अनैकान्तिक-व्याख्या ही अधिक संतोषप्रद लगती है। सांख्य दर्शन में अनेक ऐसे तत्त्व हैं, जो परस्पर विरोधी होते हुए भी एक सत्ता के सन्दर्भ में स्वीकृत हैं, जैसेसांख्यदर्शन में मन को ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय-दोनों माना गया। इसी प्रकार, उसके 25 तत्त्वों में बुद्धि, अहंकार तथा पाँच तन्मात्राओं को प्रकृति व विकृति-दोनों कहा गया है, यद्यपि प्रकृति व विकृति-दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। इसी प्रकार, पुरुष के संदर्भ में भी अपेक्षा–भेद से भोक्तृत्व और