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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-431 जैन ज्ञानमीमांसा-139 परिचायक है। यही कारण था कि राहुल सांस्कृत्यायन जैसे विचारकों ने यह अनुमान भी किया कि संजयवेलट्ठिपुत्र के दर्शन के आधार पर ही जैनों ने स्याद्वाद व सप्तभंगी का विकास किया, किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि संजयवेलट्ठि की यह दृष्टि निषेधात्मक है। अस्ति, नास्ति एवं अवक्तव्य सप्तभंगी- नय के ये जो तीन मूल नय हैं, वे तो उपनिषद्-काल से पाये जाते हैं। मात्र यही नहीं, उपनिषदों में हमें सत्-असत्, उभय व अनुभय, अर्थात् ये चार भंग भी प्रकीर्ण रूप से उपलब्ध होते हैं। औपनिषदिक- चिन्तन एवं उसके समानान्तर विकसित श्रमण-परम्परा में यह अनेकान्त- दृष्टि किसी-न-किसी रूप में अवश्य उपस्थित रही है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति की शैली भिन्न है। इस युग के बाद भारतीय-चिन्तन के दार्शनिक युग में भी विविध दर्शनों ने इस शैली को अपनाया है। वस्तुतः, वस्तुतत्त्व या परमसत्ता की बहुआयामिता, मानवीय-ज्ञानसामर्थ्य, भाषाई-अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की सीमितता मनुष्य को अनेकान्त-दृष्टि अपनाने के लिए प्रेरित करती रही। वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में एकान्तिक-उत्तर मानव को संतोष नहीं दे सके। इसका कारण यह था कि मानव अपने ज्ञान के दो साधन–अनूभूति व तर्क में से किसी का भी परित्याग नहीं करना चाहता। अनुभव के इस विरोधाभास के समन्वय के प्रयत्न सभी दार्शनिकों ने किये हैं और इन्हीं प्रयत्नों में उन्हें कहीं-न-कहीं अनेकान्त-दृष्टि का सहारा लेना पड़ा। पतंजलि ने महाभाष्य में (व्याड़ी के) इस दृष्टि का उल्लेख किया है। उनके सामने मुख्य प्रश्न था- शब्द नित्य है या अनित्य है। इस संदर्भ में वे व्याड़ी के मत को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि गुण-दोषों की परीक्षा करके तथा प्रयोजन के आधार पर यह बताया गया है कि शब्द नित्य व अनित्य-दोनों है। ज्ञातव्य है कि पतंजलि का परमसत्य शब्द ब्रह्म ही है। उसमें नित्यता व अनित्यता-दोनों को स्वीकार करके वे अन्य रूप में अनेकान्त-दृष्टि का ही प्रतिपादन करते हैं। मात्र यही नहीं, जैनदर्शन में जिस रूप में सत् की अनैकान्तिक-व्याख्या की गयी है, उसी रूप में पतंजलि के महाभाष्य में उन्होंने द्रव्य की नित्यता व आकृति की अनित्यता को विस्तार से प्रतिपादित किया है। पुनः, उन्होंने यह भी माना है कि आकृति भी सर्वथा अनित्य नहीं है। एक घट के नष्ट
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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