________________ जैन धर्म एवं दर्शन-434 जैन ज्ञानमीमांसा-142 आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा तो आसवा, अर्थात्, जो आस्रव के कारण हैं, वे ही निर्जरा के कारण बन जाते हैं और जो निर्जरा के कारण हैं, वे आस्रव के कारण बन जाते हैं- यह कहकर उसी अनेकान्त-दृष्टि का परिचय दिया गया है। आचारांग के बाद स्थानांग में मुनि के लिए विभज्यवाद का आश्रय लेकर ही कोई कथन करने की बात कही गई। यह सुनिश्चित है कि विभज्यवाद स्याद्वाद एवं शून्यवाद का पूर्वज है और वह भी. अनेकान्त-दृष्टि का परिचायक है। वह यह बताता है कि किसी भी प्रश्न का उत्तर विभिन्न अपेक्षाओं से भिन्न-भिन्न रूप में दिया जा सकता है और वे सभी उत्तर अपेक्षाभेद से सफल हो सकते हैं। भगवतीसूत्र में इस प्रकार के अनेकों प्रश्नोत्तर संकलित हैं, जो विभज्यवाद के आधार पर व्याख्यायित. हैं। भगवतीसूत्र में हमें नय-दृष्टि का परिचय मिलता है। इसमें द्रव्यार्थिकनय व पर्यायार्थिकनय तथा निश्चयनय व व्यवहारनय का आधार लेकर अनेक कथन किए गए हैं। निश्चय व व्यवहारनय का ही अगला विकास नैगम आदि पांच नयों और फिर सात नयों में हुआ। यद्यपि नयों की यह विवेचना ई. सन् की दूसरी-तीसरी शती के बा, के ग्रंथों में स्पष्ट रूप से मिलती है, किन्तु इसमें एकरूपता लगभग तीसरी शती के बाद आयी है। आज जो सात नय हैं, उनमें उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में एवं भूतबलि और पुष्पदन्त ने षट्खण्डागम में मूल में पांच को ही स्वीकार किया था। सिद्धसेन ने सात में से नैगम को स्वतंत्र नय न मानकर छ: नयों की अवधारणा प्रस्तुत की थी। वैसे नयों की संख्या के बारे में सिद्धसेन आदि आचार्यों का दृष्टिकोण अति उदार रहा है। उन्होंने अन्त में यहाँ तक कह दिया कि जितने-वचन भेद हो सकते हैं, उतने नय हो सकते हैं। कुन्दकुन्द के बाद के दिगम्बर-आचार्यों द्वारा प्रतिपादित. शुद्धनय व अशद्धनय को निश्चयनय का ही भेद मानते हुए उन्होंने इसके दो भेदों का उल्लेख किया। बाद में, पं. राजमल ने इसमें उपचार को सम्मिलित करके निश्चय व व्यवहार-नयों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया। इस प्रकार, नयों के सिद्धांत का विकास हुआ। __जहाँ तक सप्तभंगी का प्रश्न है, वह भी एक परवर्ती विकास ही है। यद्यपि सप्तभंगी का आधार महावीर की अनैकान्तिक व समन्वयवादी-दृष्टि