________________ जैन धर्म एवं दर्शन-423 जैन ज्ञानमीमांसा-131 के लिए ज्ञान-प्राप्ति के दो साधन हैं 1. इन्द्रियाँ और 2. तर्कबुद्धि / मानव अपने इन्हीं सीमित साधनों द्वारा वस्तुतत्त्व को जानने का प्रयत्न करता है। जहाँ तक मानव के ऐन्द्रिक-ज्ञान का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि ऐन्द्रिक-ज्ञान न पूर्ण है और न निरपेक्ष / मानव-इन्द्रियों की क्षमता सीमित है, अतः वे वस्तुतत्त्व का जो भी स्वरूप जान पाती हैं, वह पूर्ण नहीं हो सकता है। इन्द्रियाँ वस्तु को अपने पूर्ण स्वरूप में देख पाने में सक्षम नहीं हैं। यहाँ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि हम वस्तुतत्त्व को जिस रूप में वह है, वैसा नहीं जानकर, उसे जिस रूप में इन्द्रियां हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं, उसी रूप में जानते हैं। हम इन्द्रिय संवेदना को जान पाते हैं, वस्तुतत्त्व को नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा आनुभविक-ज्ञान इन्द्रिय सापेक्ष है। मात्र इतना ही नहीं, वह इन्द्रिय सापेक्ष होने के साथ-साथ उन कोणों पर भी निर्भर रहता है, जहाँ से वस्तु देखी जा रही है और यदि हम उस कोण (स्थिति) के विचार को अपने ज्ञान से अलग करते हैं, तो निश्चित ही हमारा ज्ञान भ्रान्त हो जायेगा, उदाहरणार्थ- एक गोल सिक्का अपने अनेक कोणों से हमें वृत्ताकार न लगकर अण्डाकार दिखाई देता है। विभिन्न गुरुत्वाकर्षणों एवं विभिन्न शारीरिक-स्थितियों से एक ही वस्तु हल्की या भारी प्रतीत होती है। हमारी पृथ्वी को जब हम उसके गुरुत्वाकर्षण की सीमा से ऊपर जाकर देखते हैं, तो गतिशील दिखाई देती है, किन्तु यहाँ वह हमें स्थिर प्रतीत होती है। दूर से देखने पर वस्तु छोटी और पास से देखने पर बड़ी दिखाई देती है। एक टेबल के जब विविध कोणों से फोटो लिए जाते हैं, तो वे परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं। इस प्रकार, हमारा सारा आनुभविक-ज्ञान सापेक्ष ही होता है, निरपेक्ष नहीं। इन्द्रिय- संवेदनों को उन सब अपेक्षाओं से अलग हटकर नहीं समझा जा सकता है, जिनमें कि वे हुए हैं। अतः, ऐन्द्रिकज्ञान दिक, काल और व्यक्ति-सापेक्ष ही होता है। किन्त, मानव-मन कभी भी इन्द्रियानभति या प्रतीति के ज्ञान को ही अन्तिम सत्य मानकर सन्तुष्ट नहीं होता, वह उस प्रतीति के पीछे भी झांकना चाहता है। इस हेतु वह अपनी तर्कबुद्धि का सहारा लेता है, किन्तु .