________________ जैन धर्म एवं दर्शन-422 जैन ज्ञानमीमांसा-130 विरोधी धर्म-युगल युगपत् रूप में रह सकते हैं, जिनका उस वस्तु में अत्यन्ताभाव नहीं है, किन्तु इस बात से वस्तुतत्त्व का अनन्तधर्मात्मक स्वरूप खण्डित नहीं होता है और वस्तुतत्त्व में नित्यता-अनित्यता, एकत्व-अनेकत्व, अस्तित्व-नास्तित्व, भेदत्व-अभेदत्व आदि अनेक विरोधी धर्मयुगलों की युगपत् उपस्थिति मानी जा सकती है। आचार्य अमृतचन्द्र 'समयसार' की टीका में लिखते हैं कि अपेक्षा-भेद से जो है, वही नहीं भी है, जो सत् है, वह असत् भी है, जो एक है, वह अनेक भी है, जो नित्य है, वही अनित्य भी है- यदेव तत् तदेव अतत् (समयसार टीका)। वस्तु एकान्तिक न होकर अनैकान्तिक है। आचार्य हेमचन्द्र अन्ययोग-व्यवच्छेदिका (5) में लिखते हैं कि विश्व की समस्त वस्तुएं स्याद्वाद की मुद्रा से युक्त हैं, कोई भी उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। यद्यपि वस्तुतत्त्व का यह अनून्तधर्मात्मक एवं अनैकान्तिक स्वरूप हमें असमंजस में अवश्य डाल देता है, किन्तु यदि वस्तु स्वभाव ऐसा ही है, तो हम क्या करें? बौद्ध-दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों में- 'यदिदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते के वयं? पुनः, हम जिस वस्तु या द्रव्य की विवेचना करना चाहते हैं, वह है क्या? जहाँ एक ओर द्रव्य को गुण और पर्यायों का आश्रय कहा गया है, वहीं दूसरी ओर, उसे गुणों का समूह भी कहा गया है / गुण और पर्यायों से पृथक् द्रव्य की और द्रव्य से पृथक् गुण और पर्यायों की कोई सत्ता नहीं है। यह है वस्तु की सापेक्षिकता और यदि वस्तुतत्त्व सापेक्षिक, अनन्तधर्मात्मक और अनैकान्तिक है, तो फिर उसका ज्ञान एवं उसकी विवेचना निरपेक्ष एवं एकान्तिक-दृष्टि से कैसे सम्भव है? इसलिए जैन आचार्यों का कथन है कि (अनन्तधर्मात्मक) मिश्रित तत्त्व की विवेचना बिना अपेक्षा के सम्भव नहीं है (अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-4, पृ.1833)। मानवीय ज्ञान प्राप्ति के साधनों का स्वरूप यह तो हुई वस्तु स्वरूप की बातें, किन्तु जिस वस्तु-स्वरूप का ज्ञान हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए हमारे पास साधन क्या हैं, हमें उन साधनों के स्वरूप एवं उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा। मनुष्य के पास अपनी सत्याभीप्सा और जिज्ञासा की सन्तुष्टि