________________ जैन धर्म एवं दर्शन-421 जैन ज्ञानमीमांसा -129 वही पर्यायदृष्टि से अनित्य भी है, उत्पत्ति और विनाश के लिए धौव्यत्व भी अपेक्षित है, अन्यथा उत्पत्ति संभव नहीं है। पुनः, उत्पत्ति और विनाश के लिए धौव्यत्व भी अपेक्षित है, अन्यथा उत्पत्ति और विनाश किसका होगा? क्योंकि विश्व में विनाश के अभाव में उत्पत्ति जैसी भी कोई स्थिति नहीं है। यद्यपि ध्रौव्यत्व और उत्पत्ति-विनाश के धर्म परस्पर विरोधी हैं, किन्तु दोनों को सहवर्ती माने बिना विश्व की व्याख्या असम्भव है। यही कारण था कि भगवान् महावीर ने अपने युग में प्रचलित शाश्वतवादी और उच्छेदवादी आदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं के मध्य में समन्वय किया, उदाहरणार्थभगवतीसूत्र में स्वयं भगवान् महावीर से गौतम ने यह पूछा कि हे भगवन् ! जीवन नित्य या अनित्य है? तो उन्होंने कहा- हे गौतम! जीव अपेक्षाभेद से नित्य भी और अनित्य भी। भगवन्! यह कैसे? हे गौतम! द्रव्य दृष्टि से जीव नित्य है, पर्याय-दृष्टि से अनित्य / इसी प्रकार, एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सोमिल को कहा था- हे सोमिल ! द्रव्य-दृष्टि से मैं एक हूँ, किन्तु परिवर्तनशील चेतनाओं (पर्यायों) की अपेक्षा से मैं अनेक भी हूँ (भगवतीसूत्र 7.3.273) / . वास्तविकता तो यह है कि जिन्हें हम विरोधी धर्म-युगल मान लेते हैं, उनमें सर्वथा या निरपेक्ष रूप से विरोध नहीं है। अपेक्षा–भेद से उनका एक ही वस्तुतत्त्व में एक ही समय में होना सम्भव है। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही व्यक्ति छोटा या बड़ा कहा जा सकता है, अथवा एक ही वस्तु ठण्डी या गरम कही जा सकती है। जो संखिया जनसाधारण की दृष्टि में विष (प्राणापहारी) है, वही एक वैद्य की दृष्टि में औषधि (जीवन-संजीवनी) भी है। अतः, यह एक अनुभवजन्य सत्य है कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म-युग़लों की उपस्थिति देखी जाती है। यहाँ हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वस्तु में अनेक विरोधी धर्म- युगलों की उपस्थिति तो होती है, किन्तु सभी विरोधी धर्म-युगलों की उपस्थिति नहीं होती है। इस सम्बन्ध में धवला का निम्न कथन द्रष्टव्य है-“यदि (वस्तु में) सम्पूर्ण धर्मों का एक साथ रहना मान लिया जाये, तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य, अचैतन्य, भव्यत्व और अभव्यत्व आदि धर्मों का एक साथ आत्मा में रहने का प्रसंग आ जायेगा, अतः यह मानना अधिक तर्कसंगत है कि वस्तु में केवल वे ही