________________ जैन धर्म एवं दर्शन-410 जैन ज्ञानमीमांसा-118. किसी विष-विशेष के दोषों की शुद्धि करके उसे औषधि बना देता है, उसी प्रकार अनेकांतवाद भी दर्शनों अथवा मान्यताओं के एकान्तरूपी विष का निराकरण करके उन्हें एक-दूसरे का सहयोगी बना देता है। अनेकांतवाद के उक्त तीनों ही कार्य (function) उसकी व्यावहारिक-उपादेयता को स्पष्ट कर देते हैं। दर्शन का जन्म ___ दर्शन का जन्म मानवीय-जिज्ञासा से होता है। ईसा पूर्व छठवीं शती में मनुष्य की यह जिज्ञासा पर्याप्त रूप से प्रौढ़ हो चुकी थी। अनेक विचारक विश्व के रहस्योद्घाटन के लिए प्रयत्नशील थे। इन जिज्ञासु चिन्तकों के सामने अनेक समस्याएँ थीं, जैसे-इस दृश्यमान् विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई। इसका मूल कारण क्या है? वह मूल कारण या परमतत्त्व जड़ है या चेतन? पुनः, यह जगत् सत् से उत्पन्न हुआ है या असत् से? यदि यह संसार सत् से. उत्पन्न हुआ, तो वह सत् या मूल तत्त्व एक है या अनेक। यदि वह एक है, तो वह पुरूष (ब्रह्म) है या पुरुषतर (जड़तत्त्व) है, यदि पुरुषतर है, तो वे अनेक तत्व कौन से हैं? अग्नि, आकाश आदि में से क्या हैं? पुनः, यदि वे अनेक हैं, तो वे अनेक तत्त्व कौन हैं? पुनः, यदि यह संसार सृष्ट है, तो वह स्रष्टा कौन है? उसने जगत् की सृष्टि क्यों की और किससे की? इसके विपरीत, यदि वे असृष्ट हैं, तो क्या अनादि हैं? पुनः, यदि ये अनादि हैं, तो इनमें होने वाले उत्पाद, व्यय-रूपी परिवर्तनों की क्या. व्याख्या है? आदि। इस प्रकार के अनेक प्रश्न मानव-मस्तिष्क में उठ रहे थे। चिन्तकों ने अपने चिन्तन एवं अनुभव के बल पर इनके अनेक प्रकार से उत्तर दिये। चिन्तकों या दार्शनिकों के इन विविध उत्तरों या समाधानों का कारण दोहरा था, एक ओर, वस्तुतत्त्व या सत्ता की बहुआयामिता और दूसरी ओर, मानवीय- बुद्धि, ऐन्द्रिक अनुभूति एवं अभिव्यक्ति-सामर्थ्य की सीमितता। फलतः, प्रत्येक चिन्तक या दार्शनिक ने सत्ता को अलग-अलग रूप में व्याख्यायित किया। सामान्यतया, इस अनैकान्तिक-दृष्टि को जैनदर्शन के साथ जोड़ा जाता है और इस सत्य को नकारा भी नहीं जा सकता है, क्योंकि