________________ जैन धर्म एवं दर्शन-409 जैन ज्ञानमीमांसा -117 की इस व्यावहारिक- महत्ता के आगे नतमस्तक होकर कहना पड़ाजेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ। तस्स मुवणेक्क गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स।। . -सन्मति-तर्क-प्रकरण-3/70 अर्थात्, जिसके बिना लोक-व्यवहार का निर्वहन भी सर्वथा सम्भव नहीं है, उस संसार के एकमात्र गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि अनेकान्तवाद व्यावहारिक-दर्शन है। इसकी महत्ता उसकी व्यावहारिक-उपयोगिता पर निर्भर है। उसका जन्म दार्शनिक-विवादों के सर्जन के लिए नहीं, अपितु उनके निराकरण के लिए हुआ है। दार्शनिक-विवादों के बीच समन्वय के सूत्र खोजना ही अनेकान्तवाद की व्यावहारिक-उपादेयता का प्रमाण है। अनेकान्तवाद का यह कार्य त्रिविध है__1. प्रत्येक दार्शनिक अवधारणा के गुण-दोषों की समीक्षा करना। इस समीक्षा में यह देखने का प्रयत्न करना कि उसकी हमारे व्यावहारिक-जीवन . में क्या उपयोगिता है, जैसे- बौद्ध- दर्शन के क्षणिकवाद और अनात्मवाद की समीक्षा करते हुए यह देखना कि तृष्णा के उच्छेद के लिए क्षणिकवाद और अनात्मवाद की दार्शनिक- अवधारणाएं कितनी आवश्यक एवं उपयोगी 2. प्रत्येक दार्शनिक अवधारणा की सापेक्षिक-सत्यता को स्वीकार करना और यह निश्चित करना कि उसमें जो सत्यांश है, वह किसी अपेक्षा-विशेष से है, जैसे- यह बताना कि सत्ता की नित्यता की अवधारणा द्रव्य की अपेक्षा से अर्थात् द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा से सत्य है और सत्ता की अनित्यता उसकी पर्याय की अपेक्षा से औचित्यपूर्ण है। इस प्रकार, वह प्रत्येक दर्शन की सापेक्षिक-सत्यता को स्वीकार करता है और वह सापेक्षिक-सत्यता किस अपेक्षा से है, उसे भी स्पष्ट करता है। __ 3. अनेकान्तवाद का तीसरा महत्वपूर्ण उपयोगी कार्य विभिन्न एकांतिक-मान्यताओं को समन्वय के सूत्र में पिरोकर उनके एकान्तरूपी दोष का निराकरण करते हुए उनके पारस्परिक-विद्वेष का निराकरण कर उनमें सौहार्द और सौमनस्य स्थापित कर देना है। जिस प्रकार एक वैद्य