________________ जैन धर्म एवं दर्शन-408 . जैन ज्ञानमीमांसा-116 भाषायी-संरचना एवं वक्ता की अभिव्यक्ति-शैली पर आधारित है और इसलिए यह कहा गया है कि जितने वचन-पथ हैं, उतने ही नयवाद हैं। नय-सिद्धान्त शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण एकान्तिक-दृष्टि से न करके उस समग्र परिप्रेक्ष्य में करता है, जिसमें वह कहा गया है। . अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी (सिद्धान्त एवं व्यवहार). अनेकान्त एक व्यावहारिक-पद्धति अनेकान्तवाद एक दार्शनिक-सिद्धान्त होने की अपेक्षा दार्शनिकमन्तव्यों, मान्यताओं और स्थापनाओं को उनेक सम्यक् परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करने की पद्धति-विशेष है / इस प्रकार, अनेकान्तवाद का मूल प्रयोजन सत्य को उसके विभिन्न आयामों में देखने, समझने और समझाने का प्रयास करना है, अतः वह सत्य के खोज की एक व्यावहारिक-पद्धति है, जो सत्ता को उसके विविध आयामों में देखने का प्रयत्न करती है। दार्शनिक-विधियां दो प्रकार की होती हैं-1. तार्किक या बौद्धिक और 2. आनुभविक / तार्किक-विधि सैद्धान्तिक होती है, वह दार्शनिक-स्थापनाओं में तार्किक-संगति को देखती है। इसके विपरीत, आनुभविक विधि सत्य की खोज तर्क के स्थान पर मानवीय-अनुभूतियों के सहारे करती है। उसके लिए तार्किक-संगति की अपेक्षा आनुभविक- संगति ही अधिक महत्वपूर्ण होती है। अनेकान्तवाद की विकास यात्रा इसी आनुभविक पद्धति के सहारे चलती है। उसका लक्ष्य, 'सत्य' क्या है- यह बताने की अपेक्षा, सत्य कैसा अनुभूत होता है- यह बताना है। अनुभूतियाँ वैयक्तिक होती हैं और इसीलिए अनुभूतियों के आधार पर निर्मित दर्शन भी विविध होते हैं। अनेकांत का कार्य उन सभी दर्शनों की सापेक्षिक-सत्यता को उजागर करके उनमें रहे हुए विरोधों को समाप्त करना है। इस प्रकार, अनेकांत एक सिद्धान्त होने की अपेक्षा एक व्यावहारिक-पद्धति ही अधिक है। यही कारण है कि अनेकान्तवाद की एक दार्शनिक-सिद्धान्त के रूप में स्थापना करने वाले आचार्य सिद्धसेन दिवाकर (ई. चतुर्थ शती) को भी अनेकान्तवाद