________________ जैन धर्म एवं दर्शन-407 . जैन ज्ञानमीमांसा-115 कि शब्द का वाच्यार्थ कारक, लिंग, उपसर्ग, विभक्ति, क्रिया-पद आदि के . आधार पर बदल जाता है। समभिरूढ़-नय - भाषा की दृष्टि से समभिरूढ़नय यह स्पष्ट करता है कि अभिसमय या रूढ़ि के आधार पर एक ही वस्तु के पर्यायवाची शब्द, यथा - नृप, भूपति, भूपाल, राजा आदि अपने व्युत्पत्यार्थ की दृष्टि से भिन्न-भिन्न अर्थ के सूचक हैं। जो मनुष्य का पालन करता है, वह नृप कहा जाता है। जो भूमि का स्वामी होता है, वह भूपति होता है। जो शोभायमान होता है, वह राजा कहा जाता है। इस प्रकार, पर्यायवाची शब्द अपना अलग-अलग वाच्यार्थ रखते हुए भी अभिसमय या रूढ़ि के आधार पर एक ही वस्तु के वाचक मान लिए जाते हैं, किन्तु यह नय पर्यायवाची शब्दों, यथा - इन्द्र, शक्र, पुरन्दर में व्युत्पत्ति की दृष्टि से अर्थ-भेद मानता एवंभूत-नय - एवंभूतनय शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण मात्र उसके व्युत्पत्तिपरक अर्थ के आधार पर करता है, उदाहरण के लिए - कोई राजा जिस समय शोभायमान हो रहा है, उसी समय राजा कहा जा सकता है। एक अध्यापक उसी समय अध्यापक कहा जा सकता है, जब वह अध्यापन का कार्य करता है, यद्यपि व्यवहार-जगत् में इससे भिन्न प्रकार के ही शब्दं प्रयोग किये जाते हैं। जो व्यक्ति किसी समय अध्यापन करता था, अपने बाद के जीवन में वह चाहे कोई भी पेशा अपना ले, 'मास्टरजी' के ही नाम से जाना जाता है। इस नय के अनुसार, जातिवाचक, व्यक्तिवाचक, गुणवाचक, संयोगी-द्रव्य-शब्द आदि सभी शब्द मूलतः क्रियावाचक हैं। शब्द का वाच्यार्थ क्रियाशक्ति का सूचक है, अतः शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण उसकी क्रिया के आधार पर करना चाहिए। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-आचार्यों का नय-सिद्धान्त यह - प्रयास करता है कि पर वाक्य-प्रारूपों के आधार पर कथनों का श्रोता के द्वारा सम्यक् अर्थ ग्रहण किया जाय / वह यह बताता है कि किसी शब्द अथवा वाक्य का अभिप्रेत अर्थ क्या होगा। यह बात उस कथन के प्रारूप पर निर्भर करती है, जिसके आधार पर वह कथन किया गया है। नय-सिद्धान्त यह भी बतलाता है कि कथन के वाच्यार्थ का निर्धारण