SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-406 जैन ज्ञानमीमांसा -113 है, उदाहरण के लिए - जब कोई व्यक्ति यह कहे कि भारतीय गरीब हैं, तो उसका यह कथन व्यक्ति-विशेष पर लागू न होकर सामान्य रूप से समग्र भारतीय जनसमाज का वाचक होता है। प्रज्ञापनासूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि जाति-प्रज्ञापनीय-भाषा सत्य मानी जाए अथवा असत्य या व्यक्ति विशेष के आधार पर सत्य या असत्य मानी जाए। जाति-प्रज्ञापनीय- भाषा में समग्र जाति के सम्बन्ध में गुण, स्वभाव आदि का प्रतिपादन होता है, किन्तु ऐसे कथनों में अपवाद की सम्भावना से इंकार भी नहीं किया जा सकता। सामान्य या जाति के सम्बन्ध में किये गये कथन कभी व्यक्ति के सम्बन्ध में सत्य भी होते हैं और कभी असत्य भी होते हैं, अतः यह प्रश्न भी उठ सकता है कि यदि उस कथन के अपवाद उपस्थित हैं, तो उसे सत्य किस आधार पर कहा जाय / उदाहरण के लिए - यदि कोई कहे कि स्त्रियाँ भीरू (डरपोक) होती हैं, तो यह कथन सामान्यतया स्त्री-जाति के सम्बन्ध में तो सत्य माना जा सकता है, किन्तु किसी स्त्री-विशेष के सम्बन्ध में यह सत्य ही हो - ऐसा आवश्यक नहीं है, अतः संग्रहनय के आधार पर किये गए कथन, जैसे - भारतीय गरीब हैं, अथवा स्त्रियाँ भीरू होती हैं, समष्टि के सम्बन्ध में ही सत्य हो सकते हैं, उन्हें उस जाति के प्रत्येक सदस्य के बारे में सत्य नहीं कहा जा सकता है। यदि कोई इस सामान्य वाक्य से यह निष्कर्ष निकाले कि सभी भारतीय गरीब हैं और बिड़ला भारतीय है, इसलिए बिड़ला गरीब है, तो उसका यह निष्कर्ष सत्य नहीं होगा। सामान्य या समष्टिगत कथनों का अर्थ समुदायरूप से ही सत्य होता है। यह समष्टि या जाति के पृथक-पृथक व्यक्तियों के सम्बन्ध में सत्य भी हो सकता है और असत्य भी हो सकता है। संग्रहनय हमें यही संकेत करता है कि समष्टिगत कथनों के तात्पर्य को समष्टि के सन्दर्भ में ही समझने का प्रयत्न करना चाहिए और उसके आधार पर उस समष्टि के प्रत्येक सदस्य के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए। व्यवहार-नय - व्यवहारनय सामान्यगर्भित विशेष पर बल देता है। व्यवहारनय को हम उपयोगितावादी-दृष्टि भी कह सकते हैं। वैसे, जैन आचार्यों ने इसे व्यक्तिप्रधान दृष्टिकोण भी कहा है। अर्थ-प्रक्रिया के सम्बन्ध में यह नय हमें यह बताता है कि कुछ व्यक्तियों के सन्दर्भ में
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy