________________ जैन धर्म एवं दर्शन-404 - जैन ज्ञानमीमांसा-112 और एवंभूत - इन तीन नयों को शब्दनय अर्थात् वाच्य के अर्थ का विश्लेषण करने वाले कहा गया है। अर्थनय का संबंध वाच्य-विषय (वस्तु) से होता है, अतः ये नय अपने वाच्य–विषय की चर्चा सामान्य और विशेष - इन पक्षों के आधार पर करते हैं, जबकि शब्दनय का संबंध वाच्यार्थ (Meaning) से होता है। आगे हम इन नैगम आदि सप्त नयों की संक्षेप में चर्चा करेंगे। .. नैगम-नय - इन सप्त नयों में सर्वप्रथम नैगमनय आता है। नैगमनय मात्र वक्ता के संकल्प को ग्रहण करता है। नैगमनय की दृष्टि से किसी कथन के अर्थ का निश्चय उस संकल्प अथवा साध्य के आधार पर किया जाता है, जिसे वह वक्ता बताना चाहता है। नैगमनय सम्बन्धी प्रकथनों में वक्ता की दृष्टि सम्पादित की जानेवाली क्रिया के अन्तिम साध्य की ओर होती है। वह कर्म के तात्कालिक-पक्ष पर ध्यान न देकर कर्म के प्रयोजन की ओर ध्यान देती है। प्राचीन आचार्यों ने नैगमनय का उदाहरण देते हुए बताया है कि जब कोई व्यक्ति स्तम्भ के लिए किसी जंगल से लकड़ी लेने जाता है और उससे जब पूछा जाता है कि भाई तुम किसलिए जंगल जा रहे हो? तो वह कहता है - मैं स्तम्भ लेने जा रहा हूँ। वस्तुतः, वह जंगल से स्तम्भ नहीं, अपितु स्तम्भ बनाने की लकड़ी ही लाता है, लेकिन उसका संकल्प या प्रयोजन स्तम्भ बनाना ही है, अतः वह अपने प्रयोजन को सामने रखकर ही वैसा ही कथन करता है। हमारी व्यावहारिक भाषा में ऐसे अनेक कथन होते हैं, जब हम अपने भावी संकल्प के आधार पर ही वर्तमान व्यवहार का प्रतिपादन करते हैं। डाक्टरी में पढ़ने वाले विद्यार्थी को उसके भावी लक्ष्य की दृष्टि से डाक्टर कहा जाता है। नैगमनय के कथनों का वाच्यार्थ भूत पर आधारित भविष्यकालीन साध्य या संकल्पों के आधार पर होता है, जैसे - प्रत्येक भाद्र कृष्ण अष्टमी को कृष्णजन्माष्टमी कहना। यहाँ वर्तमान में भूतकालीन घटना का उपचार किया गया है। संग्रह-नय - भाषा के क्षेत्र में अनेक बार हमारे कथन व्यष्टि को गौण कर समष्टि के आधार पर होते हैं। जैनाचार्यों के अनुसार, जब विशेष या भेदों की उपेक्षा करके मात्र सामान्य लक्षणों या अभेद के आधार पर जब कोई कथन किया जाता है, तो वह संग्रहनय का. कथन माना जाता